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महापुराण
[ ३९. ३.१
कुलकंचुईहिं संबोहियाई कह कह व ताई उम्मोहियाई । जणमयगलमूलालाणरज्जु
तक्खणि दिहिसेणहु देवि रज्जु । जयसेणे णासियरइरुएण
सामंत समरं महारुएण । णियदेविइ सहुँ रयविहुणएहिं अण्णेहिं मि बहुणरमिहुण एहिं । दुर्जयदुण्णयदुजसहरासु
वउ लइयउ पणविवि जसहरासु । परिसेसेप्पिणु णीसेसु संगु
तर चिण्ण तेहिं दुवालसंगु। वोलीणइ गुरुसेवाइ कालि
पच्छा संपत्तइ मरणकालि । मणि तिहयणलच्छीवइ सरेवि वरपरैगणचरियई पइसरेवि । मुणिवरहिं मयणघणमारुएहिं दोहिं मि जयसेणमहारुएहिं । घत्ता-दुरियल्लई तिण्णि वि सल्लई हिययहु कडूढिवि घित्तई।
किउ अणसणु दूसहु भीसणु पंच वि करणई जित्तई ॥३॥
जयसेणु मरेवि महाबलक्खु वेउठिवउ जहिं णीरोउ कार इयरु वि सुहकम्में तहिं जि धामि तणु मुइवि महारुउ पउरतेउ
संजायउ सुरवरु जसवलक्खु । बावीसजलहिसमपरिमियाउ । सोलहमइ अञ्चयकप्पणामि। संभूयउ सिरिमणिकेउ देउ ।
कुलके प्रतिहारियों द्वारा सम्बोधित होनेपर किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे उनका मोह दूर हुआ । उसने शीघ्र धृतिषेणको जनरूपी मदगजोंको बाँधने के लिए रस्सीके समान राज्य देकर रतिके आकर्षणको नष्ट करनेवाले जयसेन नामक सामन्त महारुत और अपनी देवीके साथ, तथा रागको नष्ट करनेवाले, दूसरे नर जोडोंके साथ दर्जय, दनंय और अपयशका हरण करनेवाले यशोधर मुनिको प्रणाम कर व्रत ग्रहण कर लिये । समस्त परिग्रहको छोड़कर उन दोनोंने दुष्कालका साथी तप ग्रहण कर लिया। गुरुकी सेवा आदिमें समय बीतनेपर और बादमें मरणकाल आने पर अपने मनमें त्रिभुवन-लक्ष्मीपति जिनेन्द्रको याद कर, उत्तम और श्रेष्ठ चर्या में प्रवेश करते हुए, कामरूपी मेघके लिए पवनके समान उन दोनों-जयसेन और महारुत मुनिवरोंने
घता-अपने हृदयसे पापमयी तीनों शल्योंको उखाड़कर फेंक दिया। उन्होंने दुःसह्य और भीषण अनशन किया और पांचों इन्द्रियोंको जीत लिया ॥३॥
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जयसेन मरकर महाबल नामका यशसे उज्ज्वल देववर हुआ। जहां उसका नीरोग वैक्रियिक शरीर था और बाईस सागर प्रमाण आयु थी। दूसरा भो ( महारुत ) शरीर छोड़कर अच्युतकल्प नामक सोलहवें स्वर्गमें प्रवर तेजस्वी श्री मणिकेतु नामका देव हुआ। सज्जन लोग अपने स्नेहका बन्ध नहीं छोड़ते। उन दोनोंने एक दूसरेको प्रतिबोधित करने का यह वचन दिया ३. १. P कह व कहव । २ A णं मयगलथूणा; Pणं मयगलाथूला। ३. A P रइविहुणएहिं । ५. A
दुक्कियदुण्णयदुज्जसहरासु; P दुक्कियदुण्णयदुज्जयहरासु । ५. A P वउ । ६. A P परपरगण । ४. १. AP थामि । २. A महारुइ ।
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