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-३८. २४. १२ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-चउतीसातिसयविसेसधरु जिणु हरिवीढि बइठ्ठउ ।।
उययहिसिहरि उययंतु रवि छुड़ णं लोएं दिहउ ॥२३॥
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सव्वभद्दु तं तहु सीहासणु कुसुमवासु भसलावलिपोसणु । णवकंकेल्लिरुक्खु कोमलदलु भामंडलु णं दिणयरमंडलु । छत्तई तिणि चंदसंकासई चमरई हिमगोखीराभासई। वज्जइ दुंदुहि मुवणाणंदणु विरइयरिद्धिउ सई सक्कंदणु । णिग्गय दिवभास सच्चुण्णय तं णिसुणंति अमर णर पण्णय । अक्खइ जिणु सत्त वि पायालई णरयलक्खदुक्खग्गिविसालई । अक्खइ जिणु भावणसंपत्तिउ वेंतरजोइससरगुप्पत्तिउ । अक्खइ जिणु अहमिंद वि सुरवर बहुविह णर तिरिक्ख तस थावर । अक्खइ जीवकम्मभेयंतर अक्खइ पेक्खइ तिजणु णिरंतरु । सीहसेणरायाइय गणहर
जाया गउँइ तासु सम्मयधर । घत्ता-सहसाई तिण्णि पण्णासियई सयई सत्त भयवंतहं ॥
पुत्वंगधरहं तहिं मुणिवरह जायई संतहं दंतहं ॥२४॥ घत्ता-चौंतीस अतिशय विशेषोंको धारण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् सिंहासनपर बैठ गये मानो लोगोंने उदयाचलके शिरपर उगता हुआ सूर्य शीघ्र देखा हो ॥२३॥
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उनका वह सर्वभद्र सिंहासन था, जिसमें कुसुमोंकी गन्ध है, और जो भ्रमरावलीका पोषण करनेवाला है, ऐसा कोमलदलवाला नव अशोकवृक्ष, भामण्डल, ( मानो दिनकरका मण्डल हो) चन्द्रमाके समान तीन छत्र, चन्द्रमा और दूधकी आभाके समान चमर, भुवनको आनन्द देनेवाली दुन्दुभि बजती है। ऋद्धियोंको उत्पन्न करनेवाला इन्द्र स्वयं ( कहता है); भगवान्की सत्यसे उन्नत दिव्यभाषा निकलती है उसे अमर नर और नाग सुनते हैं। जिन भगवान् नरकको लाखों दुःखरूपी अग्नियोंसे विशाल सात पातालों ( सातों नरकों) का कथन करते हैं । जिनवर, भवनवासी देवोंकी सम्पत्तिका कथन करते हैं। व्यन्तर ज्योतिष स्वर्गोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। जिन, अहमेन्द्र सुरवर बहुविध मनुष्य तिथंच त्रस और स्थावरका कथन करते हैं। जीव
और कर्मके भेदोंका कथन करते हैं । त्रिजगको निरन्तर देखते हैं और उसका कथन करते हैं। सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले सिंहसेनादि उनके नब्बे गणधर थे।
पत्ता-तीन हजार सात सौ पचास ज्ञानवान पूर्वागके धारी शान्त और दांत मुनिवर हुए ॥२४॥
९. A णं तइलोएं दिट्ठउ । २४. १. P दिव्ववाणि । २. A सव्वुण्णय; P सव्वण्णुय; but K सच्चुण्णय and gloss सत्योन्नता ।
३. कम्महो यंतरु। ४. A तिजयभंतरु। ५. A P णवइ; Kणउवि and gloss नवतिः । ६. A सम्मइधर ।
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