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- ३८. २६.११ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
एक्कपिंड बाहत्तरिलक्खइं मासि चइत्ति पक्खि ससिजोन्हइ रोहिणिरिक्खि कम्मसंघारणु अंतिमझाणु झत्ति विरएप्पिणु
वर्णत्तयसिहरहु सुहठाणहु कय णिव्वाणपुज सुरसारहिं गउ सुरवइ जिणगुणरंजियमणु
जीवेपि पुन्वहं कयँसोक्खई । पंचमिदिवसि जाइ पुग्वण्हइ । दंडकवाडुरुजगजगपूरणु । तिणि वि तणुबंधणई मुएप्पिणु । अजिउ भडारउ ग णिव्वाणहु । संपूई अग्गिकुमारहिं ।
अवरु वि जहिं आयउ तहिं गउ जणु ।
घत्ता - जिह रिसहें भरहद्दु वज्जरिडं विह हउं तुह सूयमाणण ॥ आहासमि सयररायचरिउ कुंदपुप्फदंताणण ||२६||
इय महापुराणे तिसट्टि महापुरिसगुणालं कारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामव्वमरहाणुमणिए महाकवे अजियणिष्वाणगमणं णाम भट्टतीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ३८ ॥ ॥ अंजियचरियं समत्तं ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अडतीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३८ ॥
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प्रकार बहत्तर लाख पूर्व वर्ष सुख पूर्वक जीकर चरमशरीरी, चैत्रशुक्ल पंचमी के दिन पूर्वाह्न में ( जब कि रोहिणी नक्षत्र था ) कर्मका संहारक दण्डप्रतर आदि लोकपूरण-समुद्धात क्रिया कर तथा अन्तिम ध्यान कर तीन शरीर बन्धनों ( ओदारिक तेजस और कार्मण ) को छोड़कर, आदरणीय अजितनाथ भुवनत्रयके शिखर शुभस्थान निर्वाणके लिए चले गये । सुरश्रेष्ठोंने उनकी निर्वाणपूजा की। अग्निकुमार देवोंने उनके शरीरका संस्कार किया। इन गुणोंसे रंजित मन होनेवाला इन्द्र चला गया । और भी लोग जहांसे आये थे वहीं चले गये ।
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घत्ता — कुन्द पुष्पके समान मुखवाले हे श्रेणिक, सगर राजाका जैसा चरित ऋषभ नाथने भरतसे कहा था वैसा मैं तुमसे कहता हूँ ॥ २६ ॥
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२. AP जाणिवि । ३. A P कयसंखहं । ४. A दंडु कवाड पयरजयपूरण; P दंडु कवाडु प जयपूरणु । ५. A भुवणंतयं; P भुवत | ६. A P संकारिउ । ७. APT सियमाणण । ८. A Pomit अजियचरियं समत्तं ।
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