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महापुराणम् वेदिकातोरणद्वारमस्ति 'तत्रोच्छितं महत् । शनैस्तेन प्रविश्यान्तर्वणं सैन्यं न्यविक्षत ॥५०॥ तत्र वास्तु वशादस्य किञ्चित्सङकुचिता यतः । स्कन्धावारनिवेशोऽभूद् अलाध्यव्यूहविस्तृतिः ॥५१॥ नन्दनप्रतिमें तस्मिन् वने रुद्धातपाङिपे। गङगाशीतानिलस्पर्शः तबलं सुखमावसत् ॥५२॥ तस्मिन् पौरुषसाध्येऽपि कृत्य देवं प्रमाणयन् । लवणाब्धिजयोद्युक्तः सोऽभ्यच्छद् दैविकी क्रियाम् ॥५३॥ 'अधिवासितजैत्रास्त्रः स त्रिरात्रमुपोषिवान् । मन्त्रानुस्मृतिपूतात्मा शुचितल्पोपगः शुचिः ॥५४॥ सायं प्रातिकनिःशेषकरणीय समाहितः । पुरोधोऽधिष्ठितां पूजां स व्यधात् परमेष्ठिनाम् ॥५५॥ सेनान्यं बलरक्षाय नियोज्य विधिवद् विभुः। प्रतस्थे घृतदिव्यास्त्रो जिगीषुर्लवणाम्बुधिम् ॥५६॥ प्रतिग्रहा पसारादिचिन्ताऽभून्नास्य चेतसि । विलिलङधयिषोरब्धिम् अहो स्थर्य महात्मनाम् ॥५७॥ अजितञ्जयमारुक्षद् रथं दिव्यास्त्रसम्भूतम् । योजितं वाजिभिदिव्यः जलस्थलविलङियभिः ॥५८॥ १३पत्रश्यामरथं प्रोच्चैः चलच्चक्राडककेतनम् । तमूहर्जवना वाहा दिव्य"सव्यष्ट्रचोदिताः ॥५६॥
ततोऽस्म दत्तपुण्याशीः पुरोधा १"धृतमङगलः । त्वं देव विजयस्वेति स इमामृचमापठत् ॥६०॥ गङ्गाके उपवनकी वेदीके अन्तभागमें सेनाका प्रवेश कराया ।।४९।। वहां वेदिकामें एक बड़ा भारी तोरणद्वार है जो कि उत्तर द्वार कहलाता है, उसी द्वारसे धीरे धीरे प्रवेश कर वनके भीतर सेनाको ठहराया ।।५०।। वहां चक्रवर्तीके शिविरकी जो रचना हुई थी उसकी, उस क्षेत्रके अनसार, लम्बाई तो अधिक थी परन्तु चौड़ाई कुछ कम थी और उसकी सेनाके विस्तार को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था ॥५१॥ जो नन्दन वनके समान है तथा जिसके के आतापको रोकनेवाले हैं ऐसे उस वनमें भरतकी वह सेना गङ्गा नदीके शीतल वायुके • स्पर्शसे सुखपूर्वक निवास करती थी ॥५२॥ यद्यपि मागध देवको वश करना यह कार्य पौरुषसाध्य है अर्थात् पुरुषार्थसे ही सिद्ध हो सकता है तथापि उसमें दैवकी प्रमाणता मानकर लवण समुद्रको जीतने के लिये तत्पर हुए भरत महाराजने भगवान् अरहन्त देवके आराधन करनेका विचार किया ॥५३॥ जिसने मन्त्र तन्त्रोंसे विजयके शस्त्रोंका संस्कार किया है, तीन दिन उपवास किया है, मन्त्रके स्मरणसे जिसका आत्मा पवित्र है, जो पवित्र शय्यापर बैठा हुआ है, स्वयं पवित्र है, सायंकाल और प्रातःकालकी समस्त क्रियाओंमें सावधान है और पुरोहित जिसके समीप बैठा है ऐसे उन भरतने पञ्च परमेष्ठीकी पूजा की ।।५४-५५।। भरतने विधिपूर्वक सेनाकी रक्षाके लिये सेनापतिको नियुक्त किया और स्वयं दिव्य अस्त्र धारण कर लवण समुद्रको जीतनेकी इच्छासे प्रस्थान किया ॥५६॥ समुद्रको उल्लंघन करनेकी इच्छा करने वाले भरतके चित्तमें यह भी चिन्ता नहीं हुई थी कि क्या क्या साथ लेना चाहिये और क्याक्या यहां छोड़ देना चाहिये सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंका धैर्य ही आश्चर्यजनक होता है ॥५७॥ जो देवोपनीत अस्त्र-शस्त्रोंसे भरा हआ है और जिसमें जल स्थल दोनोंपर समान रूपसे चलने वाले दिव्य घोड़े जुते हुए हैं ऐसे अजितंजय नामके रथपर भरतेश्वर आरूढ हुए ॥५८॥ जो पत्तोंके समान हरितवर्ण है, जिसपर बहुत ऊंचे चक्रके आकारसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही है और जो दिव्य सारथिके द्वारा प्रेरित है-हांका जा रहा है-ऐसे उस रथको वेगशाली घोड़े ले जा रहे थे ।।५९।। तदनन्तर हे देव, आपकी जय हो इस प्रकार भरतके लिये
१ तत्रोत्तरं द०, ल० । २ द्वारेण । ३ गृहसामर्थ्यात् । ४ बलविन्यासविस्तारः । ५ सदृशे । ६ -माविशत् ल० । ७ मागधामरसाधनरूपकायें। ८ मन्त्रसंस्कृत । ९ अस्तमनप्रभातसम्बन्धि । १० स्वीकारत्यजनादि । ११ विलङघितुमिच्छोः । १२ मतास्थैर्य अ०, स०, इ० । १३ वाहनवाजिभिः श्यामवर्णीकृतरथम् । अनेकतद्रथाश्वाः हरिद्वर्णा इत्युक्ताः । १४ वेगिनः । १५ दिव्यसारथिप्रेरिताः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता स्तः क्षत्ता च सारथिः। सव्येष्ट्रदक्षिणस्थौ च संज्ञारथकुटुम्बिनः" इत्यभिधानात् । (सव्येष्टेति ऋदन्त इति केचित् )ऋचं मन्त्रमित्यर्थः । १६ चोदितं ल० । नोदिताः स०, अ०। १७ धृतमङगलम् अ०, स०, इ० ।
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