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महापुराणम्
सन्ध्यादिविषये नास्य समकक्षों हि पार्थिवः । षाड्गुण्यमत एवास्मिन् चरितार्थ मभूत प्रभौ ॥२८॥ प्रतिराष्ट्रमपानीतप्राभृतान् विषयाधिपान् । सम्भावयन् प्रसादेन सोऽत्यगाद् विषयान् बहून् ॥२६॥ नास्त्रे व्यापारितो हस्तो मौर्वी धनुषि नापिता। केवलं प्रभुशक्त्यैव प्राची दिग्विजिताऽभुना ॥३०॥ गोकुलानामुपान्तेषु सोऽपश्यद् युववल्लवान् । बनवल्लीभिराबद्धजूटकान्- गोऽभिरक्षिणः ॥३१॥ मन्थाकर्षश्रमोद्भूतस्वेदबिन्दुचिताननाः । मथ्नतीः सकुचोत्कम्पं सलील त्रिकनर्तनः ॥३२॥ मन्थरज्जुसमाकृष्टिक्लान्तबाहः१ इलयांशुकाः । स्त्रस्तस्तनांश का लक्ष्यत्रिवलीभडगरोदराः ॥३३॥ क्षुब्धाभिघातोच्चलितस्थलगोरसबिन्दुभिः । विरलैरगसंलग्नः शोभां कामपि पुष्णतीः ॥३४॥ मन्थारवानुसारेण किञ्चिदारब्धमूर्छनाः । विस्रेस्तकबरीबन्धाः कामस्येव पताकिकाः ॥३५॥ १"गोष्ठाङगणेष सल्लापैः१५ स्वैरमारब्धमन्थनाः । प्रभुर्गोपवधुः पश्यन् किमप्यासीत् समुत्सकः ॥३६॥
वने वनगजैर्जुष्टे प्रभुमेनं वनेचराः । दन्तैर्वनकरीन्द्राणाम् अद्राक्षुः सह मौक्तिकः ॥३७॥ राजाओं के प्रेमपूर्ण अनुरागको धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्यों में भी भू-परागानुरंजन अर्थात् पथिवीकी धूलिसे अनुरंजन धारण करते थे, शत्रुओंको धुलिमें मिला देते थे, सो ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषोंकी चेष्टाएं आश्चर्य करनेवाली होती ही हैं ॥२७॥ संधि आदि गुणों के विषयमें कोई भी राजा महाराज भरतके बराबर नहीं था इसलिये सन्धि आदि छहों गुण उन्हीं में चरितार्थ हुए थे। भावार्थ-कोई भी राजा इनके विरुद्ध नहीं था इसलिये इन्हें किसीसे सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय नहीं करने पड़ते थे ॥२८॥ प्रत्येक देशमें भेंट लेकर आये हुए वहांके राजाओंका वड़ी प्रसन्नतासे आदर-सत्कार करते हुए महाराज भरत बहुतसे देशोंको उल्लंघन कर आगे बढ़ते जाते थे ॥२९॥ भरतेश्वरने न तो कभी तलवारपर अपना हाथ लगाया था और न कभी डोरी ही धनुषपर चढ़ाई थी। उन्होंने केवल अपनी प्रभुत्वशक्तिसे ही पूर्व दिशाको जीत लिया था ।।३०। उन्होंने गोकुलोंके समीप ही गायोंकी रक्षा करनेवाले तथा वनकी लताओंसे जिन्होंने अपने शिरके बालों का जुडा बांध रखा है ऐसे तरुण ग्वाला देखे ॥३१।। कढ़नियोंके खोंचनेके परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेकी बंदोंसे जिनके मुख व्याप्त हो रहे हैं, जो लीलापूर्वक नितम्बोंको नचा नचा कर स्तनोंको हिलाती हुई दही मथ रही हैं, कढ़नियोंके खींचनेसे जिनकी भुजाएं थक गई हैं, जिनके सब वस्त्र ढीले पड़ गये हैं, जिनके स्तनोंपरका वस्त्र भी नीचेकी ओर खिसक गया है, जिनके कृश उदरमें त्रिवली की रेखाएं साफ साफ दिख रही हैं, रई (फूल) के आघातसे उछल उछलकर शरीरमें जहाँ तहाँ लगी हुई दहीकी बड़ी बड़ी बूंदोंसे जो एक प्रकारकी विचित्र शोभाको पुष्ट कर रही हैं, मन्थन से होनेवाले शब्दोंके साथ साथ ही जिन्होंने कुछ गाना भी प्रारम्भ किया है, जिनके केशपाश का बन्धन खल गया है और इसीलिये जो कामदेवकी पताकाओंके समान जान पडती हैं, तथा गोशालाके आंगनोंमें अपने इच्छानुसार वार्तालाप करती हुई जिन्होंने दहीका मथना प्रारम्भ किया है ऐसी ग्वालाओंकी स्त्रियोंको देखते हुए महाराज भरतेश्वर कुछ उत्कण्ठित हो उठे थे ॥३२-३६।। जंगली हाथियोंसे भरे हए वनमें रहनेवाले भील लोगोंने जंगली हाथियोंके दांत और मोती भेंट कर महाराजके दर्शन किये थे ।।३७।। जिनका शरीर श्याम है जिनके
१ सन्धिविग्रहयानासनद्वैधाश्रयानां विषये। २ समानप्रतिपत्तिकः । ३ सन्ध्यादिगुणसमूहः । ४ कृतकृत्यम् । ५ प्रभोः स०अ०, द० । ६ नासौ ल०, द०, इ०। ७ तरुणगोपालान् । 'गोपे गोपालगोसंख्यागोदुगाभीरवल्लवाः' इत्यभिधानात् । ८ केशपाशान् । ६ मथनं कुर्वतीः । १० नितम्ब । 'त्रिका कृपस्य वेमौ स्यात् त्रिकं पृष्ठधरे त्रये' इत्यभिधानात् । ११ समाकर्षणग्लाना। १२ मनोज्ञ । १३ मथन । १४ स्वरविश्रवण । १५ गोस्थान । 'गोष्ठं गोस्थानकम्' इत्यभिधानात् । १६ मिथो भाषणः । १७ सेवित ।
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