Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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पारगामी थे । अङ्गज्ञानका दिन पर दिन लोप होते हुए देखकर उन्होंने श्रुतका विनाश हो जाने के भय से प्रवचनवात्सल्य से प्रेरित होकर प्रकृत कषायप्राभृतका उद्धार किया ।
भगवान महावीररूपी हिमाचल से उद्भूत होकर द्वादशाङ्गवाणीरूपी गङ्गा जिस, प्रकार प्रवाहित होती हुई आचार्य गुणधरको प्राप्त हुई उसका वर्णन करते हुए जयधवलाकार ने लिखा है
प्रस्तावना
'भगवान महावीर ने अपने गणधर आर्य इन्द्रभूति गौतमको अर्थका उपदेश किया । गौतम गणधर ने उस अर्थको अवधारण करके उसी समय द्वादशाङ्गकी रचना की और सुधर्माचार्यको उसका व्याख्यान किया । कुछ कालके पश्चात् इन्द्रभूति गणधर केवलज्ञानको प्राप्त करके और बारह वर्ष तक केवलीरूपसे विहार करके मोक्षको चले गये । जिस दिन वे मुक्त हुए उसी दिन सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्योंको द्वादशाङ्गका व्याख्यान करके केवली हुए ir are वर्ष तक विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए । उसी दिन जम्बूस्वामी विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियोंके द्वादशाङ्गका व्याख्यान करके केवली हुए और अड़तीस वर्ष तक विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। ये इस अवसर्पिणीकालमें अन्तिम केवली हुए ।'
'इनके मोक्ष चले जानेपर सकल सिद्धान्तके ज्ञाता विष्णु आचार्य नन्दिमित्रश्राचार्यको द्वादशाङ्ग समर्पित करके देवलेाकको चले गये । पुनः इसी क्रमसे अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये तीन श्रुतकेवली और हुए। इन पांचों ही श्रुतकेवलियोंका काल सौ वर्ष है। उसके बाद भद्रबाहु भगवान् के स्वर्ग चले जानेपर सकल श्रुतज्ञानका विच्छेद हो गया । किन्तु विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगोंके और उत्पाद पूर्व आदि दस पूर्वोके तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । पुनः अविच्छिन्न सन्तानरूपसे प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव, और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वोके धारी हुए। उनका काल एकसौ तेरासी वर्ष होता है | भगवान् धर्मसेनके स्वर्ग चले जानेपर भारतवर्ष में दस पूर्वोका विच्छेद हो गया । किन्तु इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पांडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह sir धारी और चौदह पूर्वीके एक देशके धारी हुए । इनका काल दो सौ बीस वर्ष होता है । पुनः ग्यारह अंगोंके धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जानेपर भरत क्षेत्र में कोई भी ग्यारह अंगका धारी नहीं रहा ।"
'किन्तु उसी समय परम्पराक्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग धारी और शेष अंगों और पूर्वोके एकदेशके धारी हुए । इन आचारांगधारियोंका काल एक अठारह वर्ष होता है । लोहाचार्य के स्वर्ग चले जानेपर आचाराङ्गका विच्छेद हो गया। इन सब आचार्योंके कालोंका जोड़ ६८३ वर्ष होता है । '
'उसके बाद अंगों और पूर्वोका एकदेश ही आचार्यपरम्परासे आकर गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । पुनः उन गुणधर भट्टारकने, जो ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तीसरे कषायप्राभृतके पारङ्गत थे, प्रवचनवात्सल्यके वशीभूत होकर ग्रन्थके विच्छेदके भयसे से लह हजार पद प्रमाण पेज्जदोसपाहुडका एकसौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया । पुनः वे ही सूत्रगाथाएँ आचार्य परम्परासे आती हुई आर्यमंतु और नागहस्ती आचार्यको प्राप्त हुई । उनसे उन एकसौ अस्सी गाथाओं को भले प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने उनपर चूर्णि सूत्रोंकी रचनाकी ।"
(१) पृ० ८४ ।
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