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उठाई गई है कि वचनके बिना अर्थका कथन करना संभव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थोंकी संज्ञा किये बिना उनका प्रतिपादन करना नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि अनक्षर ध्वनिसे मी अर्थका कथन करना संभव है सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनक्षर भाषा तिथंचोंके पाई जाती है उसके द्वारा दूसरोंको अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। तथा दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही होती है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अठारह भाषा और सात सौ कुभाषारूप होती है, इसलिये अर्थप्ररूपक तीर्थङ्कर देव भी ग्रन्थप्ररूपक गणधरके समान ही हो जाते हैं, उनका अलगसे प्ररूपण नहीं करना चाहिये। अर्थात् जिसप्रकार गणधरदेव अक्षरात्मक भाषाका उपयोग करते हैं उसीप्रकार तीर्थङ्कर देव भी, अतः अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता ये दो अलग अलग नहीं कहे जा सकते हैं। इसका जो समाधान किया है वह निम्नप्रकार है-जिनमें शब्दरचना संक्षिप्त होती है और जो अनन्त पदार्थों के ज्ञानके कारणभूत अनेक लिंगोंसे संगत होते हैं उन्हें बीजपद कहते हैं। तीर्थङ्करदेव अठारह भाषा और सातसौ कुभाषारूप इन बीजपदोंके द्वारा द्वादशांगका उपदेश देते हैं इसलिये वे अर्थकर्ता कहे जाते हैं । तथा गणधरदेव उन बीजपदोंके अर्थका व्याख्यान करते हैं, इसलिये वे ग्रन्थकर्ता कहे जाते हैं। तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर देव अपने दिव्यज्ञानके द्वारा पदार्थोंका साक्षात्कार करके बीजपदोंके द्वारा उनका कथन करते हैं ग्रन्थरूपसे उन्हें निबद्ध नहीं करते हैं, इसलिये वे अर्थकर्ता कहे जाते हैं। तथा गणधरदेव उन बीजपदों और उनके अर्थका अवधारण करके उनका ग्रन्थरूपसे व्याख्यान करते हैं इसलिये वे ग्रन्थकर्ता कहे जाते हैं। महापुराण, हरिवंशपुराण, जीवकाण्डकी संस्कृत टीका आदि ग्रन्थों में भी इसके स्वरूप पर भिन्न भिन्न प्रकाश डाला गया है । जीवकाण्डके टीकाकारने लिखा है कि दिव्यध्वनि जब तक श्रोताके श्रोत्रप्रदेशको नहीं प्राप्त होती है तब तक वह अनक्षरात्मक रहती है। हरिवंशके तीसरे सर्गके श्लोक १६ और ३८ में इसके दो भेद कर दिये हैं दिव्यध्वनि और सर्वार्धमागधी भाषा। उनमेंसे दिव्यध्वनिको प्रातिहार्योमें और सर्वार्धमागधी भाषाको देवकृत अतिशयोंमें गिनाया है। धर्मशर्माभ्युदयके सर्ग २१ श्लोक ५ में दिव्यध्वनिको वर्णविन्याससे रहित बतलाया है। चन्द्रप्रभचरितके सर्ग १८ श्लोक १ और अलंकारचिन्तामणिके परिच्छेद १ श्लोक ६६ में दिव्यध्वनिको सर्वभाषास्वभाव बतलाया है। चन्द्रप्रभचरितके सर्ग १८ श्लोक १४१ में यह भी बतलाया है कि सर्वभाषारूप वह दिव्यध्वनि मागधी भाषा थी । दर्शनपाहुड श्लोक ३५ की श्रुतसागरकृत टीकामें लिखा है कि तीर्थकरकी दिव्यध्वनि आधी मगधदेशकी भाषारूप और आधी सर्व भाषारूप होती है। पर यह देवकृत इसलिये कहलाती है कि वह मगधदेवोंके निमित्तसे संस्कृत भाषारूप परिणत हो जाती है। क्रियाकलाप-नन्दीश्वर भक्तिके श्लोक ५-६ की टीकामें लिखा है कि दिव्यध्वनि आधी भगवानकी भाषारूप रहती है, आधी देशभापारूप रहती है और आधी सर्वभाषारूप रहती है। यद्यपि यह इसप्रकारकी है तो भी इसमें सकल जनोंको
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