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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ सिंहो भागे नरो भागे योऽर्थो भागद्वयात्मकः। तमभागं विभागेन नरसिंहं प्रचक्षते ॥११५॥ दव्वट्ठियो त्ति तम्हा णत्थि णओ णियम सुद्धजाईओ।
ण य पज्जवडिओ णाम कोइ भयणा य दु विसेसों ॥११६॥" अन्वयधर्म और ऊर्ध्वभाग आदिरूप व्यतिरेकधर्म के तादात्म्यरूप होनेसे वे जात्यन्तररूप हैं। अर्थात् वे केवल न तो भेदरूप ही हैं और न अभेदरूप ही हैं किन्तु कथंचित् भेदरूप हैं और कथंचित् अभेदरूप हैं, क्योंकि घट-घटी आदिमें मिट्टी रूपसे अभेद पाया जाता है और घट-घटी आदि विविध अवस्थाओंकी अपेक्षा भेद पाया जाता है ॥११४॥"
"नरसिंहके एक भागमें सिंहका आकार पाया जाता है और दूसरे भागमें मनुष्यका आकार पाया जाता है, इसप्रकार जो पदार्थ दो भागरूप है उस अविभक्त पदार्थको विभागरूपसे नरसिंह कहते हैं ॥११५॥”
विशेषार्थ-वैष्णवोंके यहाँ नरसिंहावतारकी कथामें बताया है कि हिरण्यकशिपुको ऐसा वरदान था कि वह न तो मनुष्यसे मरेगा और न तिर्यंचसे ही। न दिनको मरेगा
और न रात्रिको ही। तथा शस्त्रसे भी उसकी मृत्यु नहीं होगी। इस वरदानसे निर्भय होकर जब हिरण्यकशिपु प्रह्लादको घोर कष्ट देने लगा तब विष्णु सन्धिकालमें नरसिंहका रूप लेकर प्रकट हुए और अपने नाखूनोंसे हिरण्यकशिपुको मौतके घाट उतारा । इस कथानकके आधारसे ऊपरके श्लोकमें वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध करनेके लिये नरसिंहका दृष्टान्त दिया है। इसका यह अभिप्राय है कि जिसप्रकार नरसिंह न केवल सिंह था और न केवल मनुष्य ही। उसे दो भागों में अलग बांटना भी चाहें तो भी ऐसा करना संभव नहीं है । वह एक होते हुए भी शरीरकी किसी रचनाकी अपेक्षा मनुष्य भी था और किसी रचनाकी अपेक्षा सिंह भी था। उसीप्रकार प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है ॥११॥
"इसलिये द्रव्यार्थिकनय नियमसे शुद्ध जातीय अर्थात् अपने विरोधी नयोंके विषयस्पर्शसे रहित नहीं है और उसीप्रकार पर्यायार्थिकनय भी नियमसे शुद्धजातीय अर्थात अपने विरोधी नयके विषयस्पर्शसे रहित नहीं है। किन्तु विवक्षासे ही इन दोनोंमें भेद पाया जाता है ॥११६॥"
विशेषार्थ-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका तथा इन दोनोंके विषयोंका परस्परमें कोई सम्बन्ध नहीं है, इसप्रकारकी संभावनाके दूर करनेके लिये इस गाथाके द्वारा वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है । वास्तवमें कोई सामान्य विशेषके बिना और कोई विशेष सामान्यके बिना नहीं रहता है। किन्तु एक ही वस्तु किसी अपेक्षासे सामा
(१) “यदुक्तम्-भागे सिंहो नरो भागे ."-तत्त्वोप० पृ० ७९ । स्या० म० पृ० ३६ । (२) सन्मति० २९।
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