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मा० १३-१४ ] कसाए णिक्खेवपरूवणा
२८७ पजाया धम्मा णयमुहेण पावियभेदाभेदा । परमत्थदो पुण पत्तजचंतरभावं दव्वं । तम्हा दव्वं पि कसायस्स विसेसणं होदि कसाओ वि दव्वस्स णेगमणयावलंबणादो। तदो 'द्रव्यं च तत्कषायश्च सः, द्रव्यस्य कषायः द्रव्यकषायः' इदि दो वि समासा एत्थ अविरुद्धा त्ति दव्वा । सेसं सुगमं ।
* पच्चयकसाओ णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो होदि तम्हा तं कम्मं पञ्चयकसारण कोहो ।
२४३. 'जीवो कोहो होदि' त्ति ण घडदे दव्वस्स जीवस्स पज्जयसरूवकोहभेद और कथंचित् अभेदको प्राप्त त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोंको धर्म कहते हैं। परमार्थसे तो जो जात्यन्तरभावको प्राप्त है वही द्रव्य है। इसलिये नैगमनयकी अपेक्षा द्रव्य भी कषायका विशेषण हो सकता है और कषाय भी द्रव्यका विशेषण हो सकती है। अतः द्रव्यरूप जो कषाय है वह द्रव्यकषाय है अथवा, द्रव्यकी जो कषाय है वह द्रव्यकषाय है, इसप्रकार कर्मधारय और तत्पुरुष ये दोनों ही समास द्रव्यकषाय इस पदमें विरोधको प्राप्त नहीं होते हैं ऐसा समझना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ-यहां यह शंका उठाई गई है कि कसैला रस पुद्गलद्रव्य में ही पाया जाता है उसको छोड़कर अन्यत्र नहीं। अतः कसैले रसके लिये जो द्रव्यपदको सूत्रकारने विशेषण रूपसे ग्रहण किया है वह ठीक नहीं है। टीकाकारने इसका यह समाधान किया है कि विशेषण विशेष्यसे सर्वथा भिन्न भी नहीं होता, न सर्वथा अभिन्न ही और न सर्वथा उभयरूप ही। फिर भी जो एकान्तसे विशेषणको विशेष्यसे सर्वथा भिन्नादिरूप मानते हैं उनके इस मंतव्यका निषेध करने के लिये चूर्णिसूत्रकारने द्रव्यपदको कषायके साथ ग्रहण किया है। जब 'शिरीषकी कषाय' इसप्रकार भेदकी प्रधानतासे विचार करते हैं तब शिरीष विशेषण और कषाय विशेष्य हो जाती है । तथा जब 'द्रव्य ही कषाय' इसप्रकार द्रव्यसे कपायको अभिन्न बतलाते हैं तब भी कषाय विशेष्य और द्रव्य विशेषण हो जाता है। इसके विपरीत 'कषायद्रव्यम्' यहां कषाय विशेषण और द्रव्य विशेष्य हो जायगा । अनेकान्तकी अपेक्षा यह सब माननेमें कोई विरोध नहीं है।
* अब प्रत्ययकषायका स्वरूप कहते हैं-क्रोधवेदनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोधरूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा वह क्रोधकर्म क्रोध कहलाता है ।
8 २४३. शंका-जीव क्रोधरूप होता है यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्य है और क्रोध पर्याय है, अतः जीवद्रव्यको क्रोधपर्यायरूप माननेमें विरोध आता है।
(१) "होइ कसायाणं बंधकारणं जं स पच्चयकसाओ।"-विशेषा० गा० २९८३। "प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययाः यानि बन्धकारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः। अत एवोत्पत्तिप्रत्यययोः कार्यकारणगतो भेदः ।"-आचा० नि० शी० गा० १९० ।
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