Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 519
________________ - ३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेजदोसविहत्ती १ * एवं ववहारणयस्स। ६३४७. जहा णेगमस्स अह भंगा उत्ता तहा ववहारस्स वि वत्तव्वा । एदेसु अष्टसु पियापियभावेण लोगसंववहारदसणादो। न्यायश्चर्यते लोकसंव्यवहारप्रसिद्धयर्थम्, यत्र स नास्ति न स न्यायः, फलरहितत्वात् । * संगहस्स दुट्ठो सव्वदव्वेसु। ६३४८.द्विष्टः सर्वद्रव्येषु भवति जीवः; प्रियेष्वपि क्वचित्कदाचिदप्रियत्वदर्शनात् , एतस्यास्मिन् सर्वथा प्रीतिरेवेति नियमानुपलम्भात् । * पियायदे सव्वदव्वेसु। ६३४६. सर्वद्रव्येषु प्रियायते सर्वो जीवः; भूत-भविष्यद्वर्त्तमानकालेषु पर्यटतो जीवस्य जात्यादिवशेन विषादिष्वपि प्रीत्युपलम्भात् । पुविल्लअहभंगे एसो किण्ण इच्छदि ? इच्छदि, किंतु थोवक्खरेहि अत्थे णेजमाणे बहुवक्खरुच्चारणमणत्थयमिदि अभंगेहि लिये उसकी अपेक्षा इन आठों भंगोंके होनेमें कोई दोष नहीं आता है। * इसीप्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। ६३४७. जिस प्रकार नैगमनयकी अपेक्षा आठ भंग कहे हैं उसीप्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा भी आठ भंग कहने चाहिये, क्योंकि इन आठोंमें प्रिय और अप्रियरूपसे लोकव्यवहार पाया जाता है। न्यायका अनुसरण भी लोकव्यवहारकी प्रसिद्धिके लिये किया जाता है। परन्तु जो न्याय लोकव्यवहारकी सिद्धिमें सहायक नहीं है वह न्याय नहीं है, क्योंकि उसका कोई फल नहीं पाया जाता है। * संग्रहनयकी अपेक्षा जीव सभी द्रव्योंमें द्विष्ट है। ६३४८. संग्रहनयकी अपेक्षा जीव सभी द्रव्यों में द्विष्ट अर्थात् द्वेषयुक्त है, क्योंकि प्रिय पदार्थोंमें भी कभी और कहीं पर अप्रीति देखी जाती है। तथा इस जीवकी इस पदार्थमें सर्वथा प्रीति ही है ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं पाया जाता है। * तथा संग्रहनयकी अपेक्षा जीव सभी द्रव्योंमें प्रीति करता है। ३४१.संग्रहनयकी अपेक्षा सभी जीव सभी द्रव्योंमें प्रीति करते हैं, क्योंकि भूतकालमें भविष्यकालमें और वर्तमानकालमें भ्रमण करते हुए जीवके जाति आदिकी परवशताके कारण विषादिकमें भी प्रीति पाई जाती है, अर्थात् संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव कभी कभी ऐसी जातिमें जन्म लेता है, जिसमें विष भी अच्छा लगता है। शंका-संग्रहनय पहले नैगमनयकी अपेक्षा कहे गये आठ भंगोंको क्यों नहीं स्वीकार करता है ? समाधान-यद्यपि संग्रहनय पहले नैगमनयकी अपेक्षासे कहे गये आठ भंगोंको स्वीकार (१) "न्यायश्चर्च्यते"-१० मा० ५० ७८९ । (२) णिज्जमाणे मा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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