________________
गा० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस अणियोगद्दाराणि
३८५ दरग्गहणं । 'देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्सा चेव सामिणो होति' त्ति कथं णव्वदे ? चउगइवदिरित्तजीवाणमभावादो। ण च दोससामित्ते भण्णमाणे सिद्धाणं संभवो अस्थि तेसु पेज-दोसाभावादो। एवं सव्वासु मग्गणासु चिंतिय वत्तव्वं ।
* एवं पेजें।
३६७. जहा दोसस्स परूवणा सामित्तविसया कया तहा पेजस्स वि अव्वामोहेण कायव्वा विसेसाभावादो। एवं सामित्तं समत्तं ।
* कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ।
३६८. तत्थ ओघेण ताव उच्चदे।। * दोसो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
१३६६. कुदो ? मुदे वाघादिदे वि कोहमाणाणं अंतोमुहुत्तं मोत्तूण एग-दोसमयादीतथा स्वर्गों और नरकोंमें विवक्षित पटल, श्रेणीबद्ध और इन्द्रक बिल या विमानोंमें निवास करनेसे भी दोषके स्वामीपनेमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है, यह बतलानेके लिये सूत्र में 'अन्यतर' पदका ग्रहण किया है।
शंका-देव नारकी तिर्यंच और मनुष्य ही दोषके स्वामी हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि चार गतियों के अतिरिक्त दोषी जीव नहीं पाये जाते हैं । यद्यपि कहा जा सकता है कि चार गतियों के अतिरिक्त भी सिद्ध जीव हैं किन्तु दोषके स्वामीपनेका कथन करते समय सिद्ध जीवों की विवक्षा संभव नहीं है, क्योंकि सिद्धोंमें पेज्ज और दोष दोनोंका अभाव है, अतः देव, नारकी तिर्यंच और मनुष्य ही दोषके स्वामी होते हैं यह निश्चित हो जाता है।
जिसप्रकार गतिमार्गणामें दोषके स्वामीपनेका कथन किया है उसीप्रकार सभी मार्गणाओंमें विचार कर उसका कथन करना चाहिये ।
* दोषके स्वामी के समान पेञ्जके स्वामीका भी कथन करना चाहिये ।
$ ३६७. जिसप्रकार दोषकी स्वामित्वविषयक प्ररूपणा की है उसीप्रकार व्यामोहसे रहित होकर सावधानीपूर्वक पेज्जकी भी स्वामित्व विषयक प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । इसप्रकार स्वामित्व अर्थाधिकार समाप्त हुआ।
* कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। $ ३६८. उनमें से पहले ओघकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं
* दोष कितने कालतक रहता है ? जघन्य और उत्कृष्टरूपसे दोष अन्तर्मुहूर्त कालतक रहता है।
शंका-जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे भी दोष अन्तर्मुहूर्तकाल तक ही क्यों रहता है ? ३६६. समाधान-क्योंकि जीवके मर जाने पर या बीचमें किसी प्रकारकी रुका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org