Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 549
________________ ४०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ वा देभ्रूणा | सणकुमारादि जाव सहस्सारेत्ति अदीदेण अट्ठ चोहसभागा वा देखणा, वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो | आणद- पाणद-आरण-अच्चुद० लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छ चोहस्सभागा वा देसूणा । णवगेवज्जादि जाव सव्वट्ठेत्ति खेत्तभंगो । और ज्योतिषी देवोंका स्पर्श त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, आठ भाग और नौ भाग प्रमाण है । सानत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंने अतीत कालकी अपेक्षा त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा नौ प्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ - सर्वत्र देवोंका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है । कुछ ऐसी अवस्थाएं हैं जिनकी अपेक्षा देवोंका अतीतकालीन स्पर्श भी लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है पर उसकी यहां पर विवक्षा नहीं की अथवा 'वा' शब्द के द्वारा उसका समुच्चय किया है | और अतीतकालीन स्पर्श जहां जितना है उसे अलगसे कह दिया है । सामान्य देवोंका और सौधर्म ऐशान स्वर्ग तकके देवोंका अतीतकालीन स्पर्श जो त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और नौ भाग कहा है उसका कारण यह है कि विहारवत्स्वस्थान वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्धातकी अपेक्षा देवोंका अतीतकालीन स्पर्श त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग बन जाता है पर मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा देवोंने अतीत कालमें त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका ही स्पर्श किया है अधिकका नहीं, क्योंकि देव एकेन्द्रियोंमें जो मारणांन्तिक समुद्धात करते हैं वह ऊपर की ओर ही करते हैं जो कि तीसरे नरकसे ऊपर तक त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम नौ भागमात्र ही होता है । इसी विशेषता को बतलाने के लिये उक्त देवोंका अतीत कालीन स्पर्श दो प्रकारसे कहा है । तथा भवन त्रिकका अतीत कालीन स्पर्श त्रस नालीके चौदह भागों में से साढ़े तीन राजु और कहा है । इसका यह कारण है कि भवनत्रिक स्वतः नीचे तीसरे नरक तक और ऊपर सौधर्म ऐशान स्वर्ग तक ही विहार कर सकते हैं इसके आगे उनका विहार परके निमित्तसे ही हो सकता है । इस विशेषताको बतलाने के लिये भवनत्रिकका अतीतकालीन स्पर्श तीन प्रकारसे कहा है । नौग्रैवेयकसे लेकर सभी देवोंका अतीतकालीन स्पर्श भी लोकका अंसख्यातवां भाग है, क्योंकि यद्यपि उन्होंने सर्वार्थसिद्धितकके क्षेत्रका स्पर्श किया है पर उन देवोंका प्रमाण स्वल्प है अतः उनके द्वारा स्पर्श किये गये समस्त क्षेत्रका जोड़ लोकका असंख्यातवां भाग ही होता है, अधिक नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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