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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? णमणुवलंभादो । जीवटाणे एगसमओ कालम्मि परूविदो, सो कधमेदेण सह ण विरुज्झदे ण; तस्स अण्णाइरियउवएसत्तादो। कोह-माणाणमेगसमयमुदओ होदूण विदियसमए किण्ण फिट्टदे ? ण; साहावियादो । उवसमसेढीदो ओदरमाणपेजवेदगे एगसमयं दोसेण परिणमिय तँदो कालं कादण देवेसुप्पण्णे दोसस्स एयसमयसंभवो दीसइ, देवेसुप्पण्णस्स पढमदाए लोभोदयेणियमदंसणादो त्ति णासंकणिजं; एदस्स सुत्तस्साहिप्पाएण तहाविहणियमाणब्भुवगमादो। अहवा, तहाविहसंभवमविवक्खिय पयट्टमेदं सुत्तमिदि वखाणेयव्वं; अप्पिदाणप्पिदसिद्धीए सव्वत्थ विरोहाभावादो । एववटके आ जाने पर भी क्रोध और मानका काल अन्तर्मुहूर्त छोड़कर एक समय, दो समय आदिरूप नहीं पाया जाता है। अर्थात् किसी भी अवस्थामें दोष अन्तर्मुहूर्तसे कम समय तक नहीं रह सकता।
शंका-जीवस्थानमें कालानुयोगद्वारका वर्णन करते समय क्रोधादिकका काल एक समय भी कहा है अतः वह कथन इस कथनके साथ विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जीवस्थानमें क्रोधादिकका काल जो एक समय कहा है वह अन्य आचार्यके उपदेशानुसार कहा है।
शंका-क्रोध और मानका उदय एक समय तक रह कर दूसरे समयमें नष्ट क्यों नहीं हो जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त तक रहना उसका स्वभाव है।
शंका-उपशम श्रेणीसे उतर कर पेज्जका अनुभव करनेवाला कोई जीव एक समय तक दोषरूपसे परिणमन करके उसके अनन्तर मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके दोषका सद्भाव एक समय भी देखा जाता है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके प्रथम अवस्थामें लोभके उदयका नियम देखा जाता है।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस सूत्रके अभिप्रायानुसार उस प्रकारका नियम नहीं स्वीकार किया है । अथवा उस प्रकारकी संभावनाकी विवक्षा न करके यह सूत्र कहा है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि मुख्यता और गौणतासे
(१) “कोहादिकसायोवजोगजुत्ताणं जहण्णकालो मरणवाघादेहिं गसमयमेत्तो त्ति जीवट्टाणादिसु परूविदो सो एत्थ किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, चुण्णिसुत्ताहिप्पाएण तहासंभवाणुवलंभादो।"-कसायपा० उपजोगा०प्रे० का० पू० ५८५७ । (२) 'अणप्पिदकसायादो कोधकसायं गंतण एगसमयमच्छिय कालं करिय णिरयगई मोत्तणण्णगइसुप्पण्णस्स एगसमओवलंभादो। कोधस्स वाघादेण एगसमओणत्थि वाघादिदेवि कोधस्सेव समप्पत्तीदो। एवं सेसतिण्हं कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा । णवरि एदेसि तिण्हं कसायाणं वाघादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा । मरणेण एगसमए भण्णमाणे माणस्स मणसगई मायाए तिरिक्खगई लोभस्स देवगई मोत्तूण सेसासु तिगईसु उप्पाएअव्वो। कुदो ? णिरयमणुसतिरिक्खदेवगईसु उप्पण्णाणं पढमसमए जहाकमेण कोधमाणमायाणं चेवुदयदंसणादो।"- जीवट्ठा० कालाणु० पृ० ४४४॥ (३) किण्ण दृविदे ण अ०, आ० । (४) कदो अ०, आ० । (५)-यमदंस-अ०, आ० । (६)-क्खाणि-अ०, आ० ।
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