Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 531
________________ ३८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? ६३६५. ण च एवं पुच्छासुत्तमिदि आसंकियव्वंः किंतु पुच्छाविसयमासंकासुत्तमिदं । कुदो ? चेदिच्चेदेण अज्झाहारिदेण संबंधादो। * अण्णदरो रइयो वा तिरिक्खो वा मणुस्सो वा देवो वा । १३६६. णाणोगाहणाउअ-पत्थडिंदय-सेढीबद्धादीहि विसेमाभावपरूवणहं अण्णहै। तथा क्रोधादि पेज्ज और दोषके भेद हैं। पर यहां स्वामित्वानुयोगद्वारका विचार चल रहा है, अतः यहां पेज्ज और दोषके विकल्पोंकी प्ररूपणा संभव भी नहीं है। इसलिये प्रकृतमें 'दोसो को होदि' इसका ‘दोषका स्वामी कौन है' यही अर्थ लेना चाहिये । ६३६५. दोसो को होदि' यह पृच्छासूत्र है ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिये । किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि यह पृच्छाविषयक आशंका सूत्र है क्योंकि ऊपरसे अध्याहाररूपसे आये हुए 'चेत्' पदके साथ इस सूत्रका सम्बन्ध है, इसलिये इसे पृच्छासूत्र न समझ कर पृच्छाविषयक आशंकासूत्र समझना चाहिये । विशेषार्थ-वीरसेन स्वामीने 'दोसो को होइ' इसे पृच्छासूत्र न कहकर पृच्छाविषयक आशंका सूत्र कहा है। इसका कारण यह है कि इस सूत्र में 'चेत्' इस पदका अध्याहार किया गया है । पृच्छा अन्य के द्वाराकी जाती है और आशंका स्वयं उपस्थित की जाती है । पृच्छावाक्य केवल प्रश्नार्थक रहता है और आशंका वाक्य प्रश्नार्थक होते हुए भी उसमें 'चेत्' पदका होना अत्यन्त आवश्यक है। यहां पर 'दोसो को होइ' इस सूत्रमें यद्यपि 'चेत्' पद नहीं पाया जाता है फिर भी ऊपरसे उसका अध्याहार किया गया है । इसलिये इसे वीरसेन स्वामीने पृच्छाविषयक आशंका सूत्र कहा है। अब प्रश्न यह रह जाता है कि इसी प्रकारके और भी बहुतसे सूत्र इसी कसायपाहुड या षट्खंडागममें पाये जाते हैं उन्हें वहां पृच्छासूत्र भी कहा है । वहां पर भी 'चेत्' पदका अध्याहार करके उन्हें पृच्छाविषयक आशंकासूत्र क्यों नहीं कहा । और यदि वहां उतनेसे ही काम चल जाता है तो प्रकृतमें भी 'चेत्' पदका अध्याहार न करके इसे भी पृच्छासूत्र कह देते, फिर यहां इसे आशंकासूत्र कहनेका क्या प्रयोजन है। इस प्रश्नका यह समाधान है कि प्रकृतमें 'पेज्जं वा दोसो वा' इस गाथाका व्याख्यान चल रहा है और इस गाथाके अन्तमें गुणधर आचार्यने जो 'अपि' पद दिया है वह 'चेत्' इस अर्थमें दिया है और उसका स्पष्टीकरण करते हुए वीरसेन स्वामीने ऊपर बताया है कि इसके द्वारा गुणधर आचार्यने अपनी आशंका प्रकट की है । मालूम होता है इसी अभिप्रायसे वीरसेन स्वामीने इसे आशंका सूत्र कहा है। * कोई नारकी, कोई तियंच, कोई मनुष्य अथवा कोई देव दोषका स्वामी है। 8३६६. ज्ञान, अवगाहन, आयु, पाथड़े, इन्द्रक और श्रेणीबद्ध इत्यादिकी अपेक्षा दोषके स्वामीपने में कोई विशेषता नहीं आती है, अर्थात् उपर्युक्त चारों गतिके जीवोंके यथासंभव ज्ञान, अवगाहन और आयु आदिके अन्तरसे दोषके स्वामीपने में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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