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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
९ ३६१. संपहि जइव सहाइरियसामित्तसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे |
* कालजोणि सामित्तं ।
९ ३६२. सामित्तं कालस्स जोणी उत्पत्तिकारणं । कुदो ! सामित्तेण विणा कालपरूवणाणुववत्तदो । तेण सामित्तं कालादो पुत्रं चैव उच्चदिति भणिदं होदि ।
$ ३६३. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण ताव
३८२
उच्चदे
* दोसो को होइ ?
९३६४. 'दोसो कस्स होदि' त्ति एत्थ वत्तव्वं सस्सामिसंबंधुजवण, अण्णहा सामित्तपरूवणाणुववत्तदो । एत्थ परिहारो उच्चदे, छडी भिण्णा वि अस्थि, जहा 'देवदत्तस्स वत्थमलंकारो वा' त्ति । अभिण्णा वि अस्थि, जहा 'जलस्स धारा, उप्फ ( प ) लस्स फासो' वाति । जेण दोहि पयारेहि छट्ठी संभवइ तेण 'जीवादो कोहस्स भेदो मा होह - (हि) दित्ति भएण छट्टीणिसोण कओ । सस्सामिसंबंधे अणुजोहदे कुदो सामित्तं णव्वदे ?
[ पेज्जदोसविहत्ती १
$३६१ . अब यतिवृषभ आचार्य के द्वारा कहे गये स्वामित्वविषयक सूत्रका अर्थ कहते हैं* स्वामित्व अर्थाधिकार काल अर्थाधिकारकी योनि है ।
§३६२. स्वामित्व कालकी योनि अर्थात् उत्पत्तिकारण है, क्योंकि स्वामित्व अर्थाधिकारकी प्ररूपणा के बिना काल अर्थाधिकारकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है । इसलिये काल अर्थाधिकार के पहले स्वामित्व अर्थाधिकारका कथन किया है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है । § ३६३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश ।
अब ओघनिर्देशकी अपेक्षा कथन करते हैं* दोषरूप कौन जीव होता है ?
९३६४. शंका - दोषका स्वामी बतलानेके लिये सूत्र में 'दोसो कस्स होदि' इसप्रकार षष्ठीविभक्तयन्त कथन करना चाहिये, अन्यथा स्वामित्वकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है ?
समाधान-यहां इस शंकाका परिहार करते हैं - षष्ठी विभक्ति भेद में भी होती है । जैसे, देवदत्तका वस्त्र या देवदत्तका अलंकार । तथा षष्ठी विभक्ति अभेद में भी होती है । जैसे, जलकी धारा, कमलका स्पर्श । इसप्रकार चूंकि दोनों प्रकारसे षष्ठी विभक्ति संभव है, इसलिये जीवसे क्रोधका कहीं भेद सिद्ध न हो जाय, इस भय के कारण सूत्र में 'दोसो कस्स होदि ' इसप्रकार षष्ठी निर्देश न करके 'दोसो को होदि' ऐसा कहा है ।
शंका-षष्ठी विभक्ति के द्वारा स्वस्वामिसम्बन्धको स्पष्ट न करने पर स्वामित्वका ज्ञान कैसे हो सकता है ?
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