Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 527
________________ ३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ $ ३५६. संपहि बालजणउप्पत्तिणिमित्तमुच्चारणाइरियपरूविदसमुक्त्तिणं सादिअद्धवअहियारे च वत्तइस्सामो । तं जहा, समुक्कित्तणाए दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि पेजदोसं । एवं जाव अणाहारो ति वत्तव्यं । णवरि, कसायाणुवादेण कोहकसाईसु माणकसाईसु च अत्थि दोसो। मायकसाइलोहकसाईसु अत्थि पेजं । संजमाणुवादे सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु अत्थि पेजं । एवं समुक्कित्तणा समत्ता। भी उसका प्रतिपादन सभी अधिकारोंके प्रारंभमें ही करना चाहिये, क्योंकि किसी वस्तुका अस्तित्व जाने बिना उसके स्वामी आदिका ज्ञान नहीं किया जा सकता है और इसीलिये वीरसेनस्वामीने चूर्णिसूत्रकारके द्वारा प्रतिपादित स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके आदिमें सबसे पहले उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये समुत्कीर्तन अधिकार अर्थात् सत्प्ररूपणाका कथन किया है। ____३५६. अब बालजनोंकी व्युत्पत्तिके लिये उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये समुत्कीतना, सादि और अध्रुव इन तीन अर्थाधिकारोंको बतलाते है। वे इसप्रकार हैं-समुत्कीर्तना अर्थाधिकारमें दो प्रकारसे निर्देश किया जाता है-एक ओघकी अपेक्षा और दूसरे आदेशकी अपेक्षा। ओघकी अपेक्षा पेज्ज और दोष दोनोंका अस्तित्व है। अनाहार मार्गणा तक इसीप्रकार उनके अतित्वका कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी और मानकषायी जीवोंमें दोषका अस्तित्व है तथा मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें पेज्जका अस्तित्व है। संयम मार्गणाके अनुवादसे सूक्ष्मसांपरायगत शुद्धिको प्राप्त संयतोंमें केवल पेज्जका अस्तित्व है। इस प्रकार समुत्कीर्तना अर्थाधिकार समाप्त हुआ। विशेषार्थ-ऊपर जो पन्द्रह अनुयोगद्वार बतला आये हैं उनका कथन ओघ और आदेश दो प्रकार से किया गया है। ओघनिर्देश द्वारा विवक्षित वस्तुकी प्ररूपणा सामान्यरूपसे की जाती है। और आदेश निर्देशद्वारा आश्रयभेदसे विवक्षित वस्तुका कथन किया जाता है। पर आश्रयभेदके रहते हुए जहां ओघप्ररूपणा अविकलरूपसे संभव होती है उस आदेश प्ररूपणाको भी ओघके समान कहा जाता है। और जहां ओघप्ररूपणा घटित नहीं होती है उसके अपवाद पाये जाते हैं वह आदेशप्ररूपणा कही जाती है। उदाहरणके लिये ऊपरका समुत्कीर्तना अधिकार ले लीजिये । इसमें पहले आश्रयभेदकी विवक्षाके बिना पेज्ज और दोषका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । यह ओघप्ररूपणा है। इसके आगे अनाहारकों तक ओघके समान कथन करनेकी सूचना की है। यहां यद्यपि आश्रयभेद स्वीकार कर लिया गया है पर आश्रयभेदके रहते हुए भी पेज्ज और दोषके अस्तित्वमें कोई अन्तर नहीं आता। सर्वत्र पेज्ज और दोषका समानरूपसे पाया जाना संभव है, इसलिये इस आदेश प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। इसके आगे 'णवरि' कह कर कषायमार्गणामें और संयममार्गणाके अवान्तरभेद सूक्ष्मसांपराय संयममें उपर्युक्त प्ररूपणाके कुछ अपवाद बतलाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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