Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 525
________________ ३७८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोस विहत्ती १ $ ३५७, उच्चारणाकत्तारेण आइरिएण जहा सादि-अद्भुव-भावाणिओगद्दारेहि सह पणारस अत्थाहियारा परूविदा तहा जइवसहाइरिएण ' पेजं वा दोसं वा 'एदिस्से गाहाए अत्थं भणतेण किण्ण परूविदा ? ण ताव सादि- अद्भुवअहियारा परूविजंति, णाणेगजीव विसयकालंतरेहि चैव तदवगमादो । ण भावो वि; णिक्खेवम्मि परूविद आगमभावस्स दव्वकम्मजणिदत्तेण ओदइयभावेण सिद्धस्स पेजस्स दोसस्स य भावाणियोगद्दारे पुणो परूवणाणुववत्तीदो| उच्चारणाइरिएण पुण अकयणिक्खेवणमंद मेहजणाणुग्गहहं पण्णारस अत्थाहियारेहि परूवणा कया, तेण दो वि उवएसा अविरुद्धा । १३५८. संतपरूवणमादीए अकाऊण मज्झे किमहं सा कया ? णाणेगजीवविसय संतपरूवण | संतपरूवणाए आदीए परूविदाए एगजीव विसया चेब होज एगजीवविसयाहियाराणमादीए पठिदत्तादो। णाणाजीवाहियारेसु पठिदा णाणाजीव विसया $ ३५७. शंका - उच्चारणावृत्तिके कर्ता आचार्यने जिसप्रकार सादि अनुयोगद्वार, अव अनुयोगद्वार और भाव अनुयोगद्वार के साथ पन्द्रह अनुयोगद्वार कहे हैं, उसीप्रकार यतिवृषभाचार्य ने 'पेज्जं वा दोसं वा' इस गाथाका अर्थ कहते समय पन्द्रह अर्थाधिकार क्यों नही कहे ? समाधान - सादि अर्थाधिकार और अध्रुव अर्थाधिकारका अलग से कथन तो किया नहीं जा सकता है, क्योंकि नानाजीवविषयक और एकजीवविषयक काल और अन्तर अर्थाधिकारोंके द्वारा ही उक्त दोनों अर्थाधिकारोंका ज्ञान हो जाता है । भाव अर्थाधिकारका भी कथन अलगसे नहीं किया जा सकता है, क्योंकि द्रव्यकर्म से उत्पन्न होने के कारण पेज्ज और दोष औदयिकभावरूपसे प्रसिद्ध हैं अतः उनका निक्षेपोंमें नोआगमभावरूपसे कथन किया है इसलिये उनका भावानुयोगद्वार के द्वारा फिरसे कथन करना ठीक नहीं है । किन्तु उच्चारणाचार्यने इसप्रकारका समावेश न करके निक्षेप पद्धतिसे अनभिज्ञ मन्दबुद्धि जनोंका उपकार करने के लिये पन्द्रह अर्थाधिकारोंके द्वारा कथन किया है, इसलिये दोनों ही उपदेशों में विरोध नहीं है । 8 ३५८. शंका - उपर्युक्त चूर्णिसूत्र में सत्प्ररूपणाको सभी अनुयोगद्वारोंके आदि में न रख कर मध्य में किसलिये रखा है ? समाधान - नाना जीवविषयक और एक जीवविषयक अस्तित्व के कथन करनेके लिये उसे मध्य में रखा है। यदि सत्प्ररूपणाका सभी अनुयोगद्वारोंके आदि में कथन किया जाता तो एक जीवविषयक अधिकारोंके आदिमें पठित होनेके कारण वह एक जीवविषयक अस्तित्वका ही कथन कर सकती । शंका- जब कि नाना जीवविषयक अर्थाधिकारों में सत्प्ररूपणा कही गई है तो वह नाना जीवविषयक ही क्यों नहीं हो जाती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572