Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 526
________________ गां ० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस ओगद्दाराणि ३७६ चैव किण्ण होदि ? णः एगजीवाविणाभाविणाणाजीवाहियारेसु पठिदाए णाणेगजीवविसयत्तणेण विरोहाभावादो । णाणेगजीवाहियाराणमाईए पठिदा वि उभयविसया दिघे ? ण; एगजीवाहियारेहि अंतरिदाए णाणाजीवाहियारेसु उत्ति१ विरोहादो | संतपरूवणाए भेदाभावादो णाणाजीवेहि भंगविचओ ण वत्तव्वो ? ण; सावहारण - अणवहारण संतपरूवणाणमेयत्तविरोहादो । संतपरूवणा पुण कत्थ होदि ? सव्वाहियाराणमाईए चेव, बारसअत्थाहियाराणं जोणिभूदत्तादो । समाधान- नहीं, क्योंकि एक जीवके अविनाभावी नानाजीवविषयक अर्थाधिकारों में पठित होने से वह नाना जीव और एक जीव दोनोंको विषय करती है, इसमें कोई विरोध नहीं है । शंका- नाना जीवविषयक अर्थाधिकार और एक जीवविषयक अर्थाधिकार इन दोनोंके आदिमें यदि उसका पाठ रखा जाय तो भी वह दोनोंको विषय करती है, ऐसा क्यों नहीं स्वीकार करते हो ? समाधान- नहीं, क्योंकि इसप्रकार से पाठ रखने पर वह एक जीवविषयक अर्थाधिकार से व्यवहित हो जाती है इसलिये उसकी नानाजीवविषयक अर्थाधिकारोंमें प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है । शंका- नाना जीवविषयक भंगविचय नामक अर्थाधिकारका सत्प्ररूपणा से कोई भेद नहीं है, इसलिये नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामक अर्थाधिकार नहीं कहना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि सत्प्ररूपणा अवधारणरहित है अर्थात् सामान्यरूप है और भंगविचय अवधारणसहित है अतः इनको एक माननेमें विरोध आता है । शंका- तो सत्प्ररूपणा कहां होती है ? समाधान-सभी अर्थाधिकारोंके आदिमें ही सत्प्ररूपणा होती है क्योंकि वह बारहों ही अर्थाधिकारोंकी योनिभूत है । I विशेषार्थ - सभी अधिकारों के प्रारंभ में सत्प्ररूपणाका कथन किया जाता है तदनुसार सूत्रमें उसका पाठ भी सबसे पहले होना चाहिये । पर चूर्णिसूत्रकारने उसका पाठ सबसे पहले न रखकर अनेक जीवोंकी अपेक्षा कहे गये अधिकारों के मध्य में रखा है । चूर्णि - सूत्रकारने ऐसा क्यों किया ? इसका वीरसेनस्वामीने यह कारण बतलाया है कि सत्प्ररूपणा के विषय नाना जीव और एक जीव दोनों होते हैं । अर्थात् सत्प्ररूपणामें नाना जीव और एक जीव दोनोंका अस्तित्व बतलाया जाता है, इसलिये चूर्णिसूत्रकारने एक जीवविषयक अधिकारों के आदि में उसका पाठ न रखकर अनेक जीवविषयक अधिकारोंके मध्य में उसका नामनिर्देश किया है, जिससे सत्प्ररूपणा में दोनों प्रकारके अधिकारोंकी अनुवृत्ति हो जाती है । इसप्रकार यद्यपि सत्प्ररूपणा के पाठको मध्य में रखनेकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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