Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 524
________________ ३७७ गा० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस अणिश्रोगहाराणि सएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो । तो क्सहिं 'दुविहो णेगमो' ति ण घडदे, ण; एयम्मि जीवम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स वि दुब्भावत्ताविरोहादो। $ ३५६. 'एदाणि वारस अणियोगद्दाराणि कम्हि वत्तव्वाणि' ति वुत्ते पेजेसु दोसेसु च । कुदो ? आहारस्स करणत्त विवक्खाए ‘पेजेहि दोसेहि' त्ति सिद्धीदो । अहवा सहढे तइया दहव्या, तेण पेजेहि दोसेहि सह बारस अणिओगद्दाराणि वत्तव्वाणि त्ति सिद्धं । 'काणि ताणि बारस अणियोगद्दाराणि' त्ति उत्ते तेसि णिद्देसट्टमुत्तरसुत्तं भणदि * एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भागाभागाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो त्ति। नहीं होता है, क्योंकि उसका विषय इन दोनोंके विषयसे भिन्न है। और केवल एक एकको विषय करनेवाले नयों के साथ दोनोंको विषय करनेवाले नयकी समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। शंका-यदि ऐसा है तो दो प्रकारका नैगमनय नहीं बन सकता है। समाधान-नहीं, क्योंकि एक जीवमें विद्यमान अभिप्राय आलंबनके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है। और अभिप्रायके भेदसे उसका आधारभूत जीव दो प्रकारका हो जाता है । इसमें कोई विरोध नहीं है। इसीप्रकार नैगमनय भी आलम्बनके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है। ६३५६. 'ये बारह अनुयोगद्वार किस विषयमें कहना चाहिये' ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि पेज्जों और दोषोंके विषयमें ये बारह अनुयोगद्वार कहना चाहिये, क्योंकि आधारकी करणरूपसे विवक्षा कर लेने पर पेज्जोंकी अपेक्षा और दोषोंकी अपेक्षा ये बारह अनुयोगद्वार कहना चाहिये ऐसा सिद्ध हो जाता है। आशय यह है कि चूर्णिसूत्रकारने आधारकी करण विवक्षा करके 'पेज्जेहिं दोसेहिं' इसप्रकारसे तृतीया विभक्ति रक्खी है अतः उसका अर्थ करणपरक न लेकर विषयपरक ही लेना चाहिये। अथवा, 'पेज्जेहि' और 'दोसेहि' इन पदोंमें 'सह' इस अर्थमें तृतीया विभक्ति समझना चाहिये । इसलिये पेज्ज और दोषोंका आलम्बन लेकर ये बारह अनुयोगद्वार कहना चाहिये, यह सिद्ध होता है। वे बारह अनुयोगद्वार कौन हैं, ऐसा पूछने पर उनका नामनिर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं _* एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम इसप्रकार पेज और दोषोंके विषयमें बारह अनुयोगद्वार होते हैं। ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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