Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 522
________________ गा० २१ ] कसाएसु पेज्जदोसविभागो ३७५ एदम्मि णए दव्वाभावादो। ण दोसस्स दोसंतरमाहारो; सरूवलद्धीए अणिमित्ताणं पुधभूदाणमाहारत्तविरोहादो, अण्णेण अण्णम्मि धारिमाणे अणवत्थाप्पसंगादो । ण च अण्णे अण्णस्स उप्पत्तिणिमित्तं होदि; अणुप्पत्तिसहावस्स उप्पत्तिविरोहादो । अविरोहे च सामण्ण-विसेसेहि असंतस्स गद्दहसिंगरस वि परदो समुप्पत्ती होज अविसेसादो। ण च एवं, गद्दहस्स मत्थए उप्पण्णसिंगाणुवलंभादो। ण च उप्पजणसहावमण्णत्तो उप्पजइ तत्थ अण्णवावारस्स फलाभावादो । ण च अण्णम्हि रुहे तस्स रोसस्स फलमण्णो भुंजइ; तत्थेव अंगसंतावादिफलोवलंभादो। ण रुटेण अण्णम्हि उप्पाइयदुक्खं पि तेण कय; अप्पणो चेय तस्सुप्पत्तीदो, विस-सस्थग्गिवावाराणं चक्कवट्टिविसयाणं फलाणुवलंभादो । तदो अत्ता अत्ताणे चेव दुटो पियायदे चेदि सिद्धं ।। ही, क्योंकि शब्दनयमें द्रव्य नहीं पाया जाता है। दोषका दूसरा दोष भी आधार नहीं हैं, क्योंकि इस नयकी अपेक्षा जो जिसके स्वरूपकी प्राप्तिमें निमित्त नहीं हैं ऐसे भिन्न पदार्थोंको आधार मानने में विरोध आता है । तथा अन्य पदार्थ अन्य पदार्थको धारण करता है इसलिये एक दोष दूसरे दोषका आधार हो जायगा यदि ऐसा माना जाय तो अनवस्था प्राप्त होती है। तथा इस नयकी अपेक्षा दूसरा पदार्थ दूसरे पदार्थकी उत्पत्तिका निमित्त भी नहीं हो सकता है, क्योंकि इस नयकी अपेक्षा पदार्थ अनुत्पत्तिस्वभाव है, इसलिये उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि पदार्थ अनुत्पत्तिस्वभाव है अतः उसकी उत्पत्ति माननेमें कोई विरोध नहीं आता है, सो भी बात नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सामान्य और विशेष दोनोंरूपसे अविद्यमान गधेके सींगकी दूसरेसे उत्पत्ति होने लगेगी, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। यदि कहा जाय कि अन्यसे गधेके सींगकी उत्पत्ति होती है सो भी बात नहीं है, क्योंकि गधेके मस्तक पर उत्पन्न हुआ सींग नहीं पाया जाता है। तथा जिसका स्वभाव उत्पन्न होना है वह अन्यके निमित्तसे उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पन्न होनेवाले पदार्शमें अन्य पदार्थके व्यापारका कोई फल नहीं पाया जाता है। किसी अन्यके रुष्ट होने पर उस दोषका फल कोई अन्य भोगता है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि जो रुष्ट होता है उसीमें शरीरसंताप आदि फल पाये जाते हैं। रुष्ट पुरुषके द्वारा किसी अन्यमें उत्पन्न किया गया दुःख उस सृष्ट पुरुषके द्वारा किया गया है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अपने आप ही उस दुःखकी उत्पत्ति होती है तथा चक्रवर्तीके ऊपर किये गये विष, शस्त्र और अग्निके प्रयोगोंका फल नहीं पाया जाता है, इससे भी मालूम होता है कि अपने आप ही दुःख उत्पन्न होता है । इसलिये शब्दनयकी अपेक्षा आत्मा अपने आपमें ही द्वेष करता है और राग करता है यह सिद्ध हुआ। (१) अण्णट्ठो धा-अ०, आ०, स० । (२)-ज्जमाणो अ०, मा०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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