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गा० २१ ]
पेज्जदोसेसु बारस णिश्रोगद्दाराणि
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परणादो। अधवा छडीए अत्थे पढमाणिद्देसोयं कओ त्ति दट्टव्वो, तेण दोसो कस्स होदि त्ति सिद्धं । किंच, अत्थावत्तदो वि संबंधो सस्सामिलक्खणो अस्थि ति णव्वदे । तं जहा, दोसो पज्जाओ, ण सो दव्वं होदि; णिस्सहावस्स दव्वासयस्स उप्पत्ति-विणासलक्खणस्स तिकालविसयतिलक्खणदव्वभावविरोहादो । ण च दव्वं दोसो होदि; तिलक्खणस्स दव्वस्स एयलक्खणत्तविरोहादो । तदो सिद्धो भेदो दव्वपज्जायाणं । दव्वादो अपुधभृदपज्जा सणादो सिया ताणमभेदो वि अस्थि । ण सो एत्थ वेप्पर, सामित्तम्मि भण्णमाणे तदसंभवादो । तदो अत्थादो 'दोसो कस्स होदि' त्तिणव्वदे | 'कोह- माणमाया- लोहेसु दोसो को होदि' त्ति किण्ण उच्चदे । ण; णए अस्सिदूण एदस्स अत्थस्स पुत्रं चैव परुविदत्तादो | ण च सामित्ते एसा परूवणा संभवइ, विरोहादो । तदो पुव्विल्लअत्थो चैव घेत्तव्वो ।
समाधान - प्रकरण से स्वामीका ज्ञान हो जाता है । अथवा, षष्ठी विभक्तिके अर्थ में चूर्णिवृत्तिकारने प्रथमा विभक्तिका निर्देश किया है ऐसा समझना चाहिये, इसलिये 'दोसो को होदि' इस सूत्रका 'दोष किसके होता है' यह अर्थ बन जाता है । दूसरे, यहां पर स्वस्वामिलक्षण सम्बन्ध है यह बात अर्थापत्ति से भी जानी जाती है। उसका खुलासा इस प्रकार है- दोष यह पर्याय है । और पर्याय द्रव्य हो नहीं सकती है, क्योंकि जो दूसरे स्वभावसे रहित है, जिसका आश्रय द्रव्य है और जो उत्पत्ति और विनाश रूप है उसे तीनों कालोंके विषयभूत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यलक्षणवाला द्रव्य माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि दोष द्रव्य है ऐसा मान लेना चाहिये । सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि त्रिलक्षणात्मक द्रव्यको केवल एकलक्षणरूप माननेमें विरोध आता है । इसलिये द्रव्य और पर्यायोंका कथंचित् भेद सिद्ध हो जाता है । तथा पर्यायें द्रव्यसे अभिन्न देखी जाती हैं इसलिये द्रव्य और पर्यायोंमें कथंचित् अभेद भी पाया जाता है। पर यहां अभेदका ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि स्वामित्वका कथन करते समय अभेद बन नहीं सकता है । इसलिये 'दोसो को होदि' इसका अर्थ अर्थापत्ति से दोष किसके होता है यह जाना जाता है ।
शंका- 'दोसो को होदि' इस सूत्रका क्रोध, मान, माया और लोभ इनमें से कौन दोष है, ऐसा अर्थ क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि नयोंका आश्रय लेकर इस अर्थका कथन पहले ही कर आये हैं । और स्वामित्व अनुयोग द्वार में यह प्ररूपणा संभव भी नहीं है, क्योंकि स्वामित्वप्ररूपणासे उक्त प्ररूपणाका विरोध आता है। इसलिये यहां पहलेका अर्थ ही लेना चाहिये । विशेषार्थ - नैगमादि नयोंकी अपेक्षा कौन कषाय दोषरूप है और कौन कषाय पेज्जरूप है इसका कथन पहले ही 'पेज्जं वा दोसो वा' इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते समय कर आये हैं, अतः फिरसे यहां उसके व्याख्यान करनेकी कोई आवश्यकता नहीं
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