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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* कम्हि कसाओ ?
२८५. वत्थालंकारासु बज्झावलंबणेण विणा तदणुष्पत्तीदो । अहवा, जीवम्मि कसाओ । कथमभिण्णस्स अहियरणत्तं ? ण; 'सारे हिदो थंभो' त्ति अभिण्णे वि अहियरणत्वभादो । तिन्हं सहणयाणं कसाओ अप्पाणम्भि चैव हिदो, तत्तो पुधभूदस्स कसायहिदिकारणस्स अभावादो ।
* केवचिरं कसाओ ?
[ पेज्जदोस विहत्ती १
है । नैगमादि चार नयोंकी अपेक्षा कषाय कर्तृसाधन है । अथवा कषायकी उत्पत्तिका कारण कर्मोंका उदय है इसलिये औदयिकभावसे कषाय होती है । पर शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि ये नय कार्यकारणभाव के बिना वर्तमान पर्याय मात्रको ग्रहण करते हैं । अथवा शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय पारिणामिक भावसे होती है। इसका यह तात्पर्य है कि कषायका कारण उदय नहीं है । कषाय में जो देशादिकके भेदसे भेद पाया जाता है वह शब्दादि नयोंका विषय नहीं है ।
* कषाय किसमें होती है ?
९२८५. वस्त्र और अलंकार आदि में कषाय उत्पन्न होती है, क्योंकि बाह्य अवलंबनके बिना कषायकी उत्पत्ति नहीं होती है । अथवा कषाय जीवमें होती है ।
शंका- जीव कषायसे अभिन्न है, इसलिये उसे अधिकरणपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि 'सारमें स्तंभ स्थित है' अर्थात् स्तंभका आधार उसका सार है । यहाँ सारसे स्तंभका अभेद रहते हुए भी अधिकरणपना पाया जाता है । अतः अभेदमें भी अधिकरणपना संभव है । तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा कषाय अपनेमें ही स्थित है, क्योंकि इन नयोंकी अपेक्षा कषायकी स्थितिका कारण अर्थात् आधार कषायसे भिन्न नहीं पाया जाता है |
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विशेषार्थ - 'कषाय किसमें होती है' इसके द्वारा अधिकरणका कथन किया है । अधिकरण बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे बाह्य अधिकरण में निमित्तका ग्रहण किया है । अतः वस्त्रालंकारादि में कषाय उत्पन्न होती है इसका यह अभिप्राय है कि वस्त्रालंकारादिके निमित्तसे कषाय उत्पन्न होती है । तथा आभ्यन्तर अधिकरणमें जीवका ग्रहण किया है । कषाय जीव द्रव्यकी अशुद्ध पर्याय है अतः उसका आधार जीव ही होगा । यद्यपि कषाय जीवसे अभिन्न पाई जाती है पर पर्याय- पर्यायीकी अपेक्षा कथंचित् भेद मानकर उन दोनोंमें आधार-आधेयभाव बन जाता है । यह सब कथन नैगमादि चार नयोंकी अपेक्षा समझना चाहिये । तीनों शब्दनय तो केवल वर्तमान पर्यायको ही स्वीकार करते हैं अतः उनकी अपेक्षा कषायका आधार उससे भिन्न नहीं हो सकता है ।
* कषाय कितने कालतक रहती है ?
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