________________
गा० २१]
कसाएसु पेज्जदोसविभागो कस्स बा णयस्स दोसो वा होदि त्ति । को को णओ कम्मि कम्मि दब्वे दुटो वा होदि को वा कम्मि पियायदे त्ति ।
६३३४. अपिशब्दो निपातत्वादनेकेष्वर्थेषु वर्तमानोऽप्यत्र चेदित्येतस्यार्थ (र्थे ) ग्राह्यः। एतेनाशङ्का द्योतिता आत्मीया गुणधरवाचकेन । उवरि जत्थ 'अवि' सद्दो णत्थि, तत्थ वि एसो चेव अणुवट्टावेयव्यो। एवमासंकिऊण गुणहराइरिएण गंथेण विणा वक्खाणिजमाणत्थो णिण्णिबंधणो दुरवहारो त्ति जइवसहाइरिएण णिबंधणं भणिदं ।
* एदिस्से गाहाए पुरिमद्धस्स विहासा कायव्वा । तं जहा, णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्ज़, लोहो पेजं ।
६३३५. एदिस्से गाहाए पुरिमद्धस्स' इत्ति ण वत्तव्यं, अभणिदे वि अवगम्ममाणत्तादो। ण एस दोसो; मंदबुद्धिजणमस्सिऊण परूविदत्तादो। कोहो दोसो; अङ्गसन्तापकौन नय किस किस द्रव्यमें दुष्ट होता है और कौन नय किस द्रव्यमें पेज होता है ?
६३३४. अपि' शब्द निपातरूप होनेसे यद्यपि अनेक अर्थों में पाया जाता है तो भी यहां 'चेत्' इस अर्थ में उसका ग्रहण करना चाहिये । इसके द्वारा गुणधर वाचकने अपनी आशंका प्रकट की है। आगे जिस सूत्रगाथामें 'अपि' शब्द नहीं पाया जाता है वहां भी इसी 'अपि' शब्दकी अनुवृत्ति कर लेना चाहिये। इसप्रकार आशंका करके गुणधर आचार्य ग्रन्थके बिना जिस अर्थका व्याख्यान करते हैं वह अर्थ निबन्धनके बिना धारण करनेके लिये कठिन है इसलिये यतिवृषभ आचार्थने निबन्धन कहा है। अर्थात् उक्त गाथासूत्र में केवल कुछ आशंकाएं की हैं और उनके द्वारा ही वे प्रकृत अर्थके निरूपणकी सूचना करते हैं। किन्तु जबतक उसका सम्बन्ध नहीं बतलाया जायगा तब तक उस अर्थको ग्रहण करना कठिन होगा। अतः प्रकृत अर्थका सम्बन्ध बतलानेके लिये यतिवृषभ आचार्यने सूत्र कहा है।
___ * इस गाथाके पूर्वाधका विशेष विवरण करना चाहिये। वह इसप्रकार है-नैगमनय और संग्रहनयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया पेज है और लोभ पेज है।
३३५. शंका-चूंर्णिसूत्रमें 'एदिस्से गाहाए पुरिमद्धस्स ' यह नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इसके नहीं कहने पर भी उसका ज्ञान हो जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि प्राणियोंका विचार करके उक्त पद कहा है।
क्रोध दोष है, क्योंकि क्रोधके करनेसे शरीरमें संताप होता है, शरीर कांपने लगता है, उसकी कान्ति बिगड़ जाती है, आंखोके सामने अँधियारी छा जाती है, कान बहरे हो
(१) "सुत्तेण सूचिदत्थस्स विसेसिऊण भासा विभासा विवरणं त्ति वुत्तं होदि ।"-जयध० प्रे० पृ० ३११९। (२) "कोहं माणं वऽपीइजाइओ बेइं संगहो दोसं । मायालोभ य स पीइजाइसामण्णओ रागं ॥"-विशेषा० गा० ३५३६। (३) लोहं पे-अ० ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org