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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? नैतेष्वर्थेष्वस्य धातोवृत्तिविरुद्धा । उपसर्गसम्पातेन वाऽस्यानेकार्थता । अत्रोपयोगी श्लोकः
" कश्चिद् मृद्गाति धोरथ कश्चित्तमनुवर्तते ।
तमेव विशिनष्टयन्यो 'गीनां च त्रिविधा गतिः ॥१२॥" $ २६८. संपहि जइवसहाइरियो णिरुत्तीसुत्तं भणइ । * पाहुडे त्ति का णिरुत्ती? जम्हा पदेहि पुदं (फुडं) तम्हा पाहुडं ।
६२६६. पदाणि त्ति भणिदे मज्झिमत्थपदाणं गहणं कायव्वं । एदेहि पदेहि पुदं (फुड) वत्तं सुगममिदि पाहुडं ।
___ "कीरइ पयाण काण वि आईमज्झंतवण्णसरलोवो ॥१२॥" त्ति कारस्स लोवो कायन्वो
"एए छच्च समांणा दोण्णि अ संज्झक्खरा सरा अट्ट ।
अण्णोण्णस्सविरोहा उति सम्वे समाएसं ॥१३०॥" "कोई उपसर्ग धातुके अर्थको बदल देता है, कोई धातुके अर्थका अनुसरण करता है और कोई धातुके अर्थमें विशेषता लाता है। इसप्रकार उपसर्गोंकी तीन प्रकारसे प्रवृत्ति होती है ॥१२८॥"
२१८. अब यतिवृषभ आचार्य पाहुडके निरुक्ति सूत्रको कहते हैं
* पाहुड इस शब्दकी क्या निरुक्ति है ? चूंकि जो पदोंसे स्फुट अर्थात् व्यक्त है इसलिये वह पाहुड कहलाता है।
६२६६. सूत्र में 'पद' ऐसा कहनेसे मध्यमपद और अर्थपदोंका ग्रहण करना चाहिये। इन पदोंसे जो स्फुट अर्थात् व्यक्त या सुगम है वह पाहुड (पद+स्फुट) कहलाता है।
"किन्हीं भी पदोंके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित वर्ण और स्वरका लोप होता है॥१२॥"
- इस नियमके अनुसार पदके दकारका लोप कर देना चाहिये । इसप्रकार दकारका लोप कर देने पर पअ+स्फुट रह जाता है। तब
"अ, आ, इ, ई, उ और ऊ ये छह स्वर समान हैं। तथा ए और ओ ये दोनों सन्ध्यक्षर हैं । इसप्रकार ये आठों स्वर अविरोध भावसे एक दूसरेके स्थानमें आदेशको प्राप्त होते हैं ॥१३०॥"
(१) "क्रियायोगे गि। क्रियायोगे प्रादयो गिसंज्ञा भवन्ति .."-जैनेन्द्र० महा० श२।१२९ । (२) गतः अ०, आ० । तुलना-'धात्वर्थं बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्तते । तमेव विशिनष्टयन्योऽनर्थकोऽन्यः प्रयुज्यते ॥"-प्रा० गु० पृ० १०३। (३) ध० सं० पृ० १३३ । (४) थकार-स०। (५) ध० आ० प० ७८९ । (६) "लुदन्ताः समानाः ।"-सिद्धहेम० १।१७। (७) "ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षरम् ।" -सिबहेम० ११११८॥
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