Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 476
________________ गा०१३-१४] श्रद्धापरिमाणणिदेसो ३२६ $३००. संपहि जइवसहाइरिएहि सुगमाओ त्ति जाओ ण वक्खाणिदाओ अद्धापरिमाणणिदेसगाहाओ तासिमत्थपरूवणा कीरदे । पढमं चेव अद्धापरिमाणणिद्देसो किमहं कीरदे ? ण; एदासु अद्धासु अणवगयासु सयलस्थाहियारविसयअवगमाणुववत्तीदो। तेण अद्धापरिमाणणिद्देसो पुव्वं चेव उच्चदे । तत्थ छसु गाहासु एसा पढमगाहाहोनेका अपवाद नियम भी आता है पर उनमें स के स्थानमें ह करनेका सामान्य नियम नहीं मिलता। यहां उपर्युक्त नियमानुसार पद और स्फुट शब्दसे पाहुड शब्द बना कर अनन्तर उसका कषाय शब्दके साथ षष्ठी तत्पुरुष समास किया है । पर कितने ही आचार्य इसके स्थानमें 'कसायविसयपदेहि फुडं कसायपाहुडं' ऐसा कहते हैं। पहली निरुक्तिके अनुसार पाहुड शब्दका अर्थ शास्त्र और कसाय शब्दका अर्थ कषायविषयक श्रुतज्ञान करके अनन्तर इन दोनों पदोंका समास किया गया है। पर दूसरी निरुक्तिमें पहले कसाय और पदका समास कर लिया गया है और अनन्तर उसे फुड शब्दसे जोड़कर कसायपाहुड शब्द बनाया है। इस विषयमें वीरसेनस्वामीका कहना है कि यदि इसप्रकार भी कसायपाहुड शब्द निष्पन्न किया जाय तो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसप्रकारकी निरुक्तिमें 'जो कषायविषयक पदोंसे भरा हुआ हो उस श्रुतको कसायपाहुड कहते हैं' कसायपाहुड शब्दका यह अर्थ हो जाता है। अब प्रश्न यह रह जाता है कि भृत शब्दसे फुड कैसे बनाया जाता है। चूर्णिसूत्रकारने अपने चर्णिसूत्रमें 'फुडं' पद ही रखा है इसलिये यह प्रश्न उत्पन्न होता है । क्योंकि वीरसेनस्वामीने जो आचार्यान्तरोंका अभिप्रायान्तर दिया है वह चूर्णिसूत्रके अनुसार निरुक्तिके विषयमें ही अभिप्रायान्तर समझना चाहिये । और इसलिये भृत शब्दसे फुड शब्द बनानेकी आवश्यकता प्रतीत होती है। यद्यपि व्याकरणके सामान्य नियमों में चतुर्थ अक्षर भ के स्थानमें द्वितीय अक्षर फ के होनेका कोई नियम नहीं मिलता है पर चुलिका पैशाचीमें भ के स्थानमें फ अक्षरके होनेका भी नियम पाया जाता है। संभव है इसीप्रकारके किसी नियमके अनुसार यहां भी भ के स्थानमें फ करके दूसरे आचार्य फुड का अर्थ भृत करते हों और उसीका उल्लेख यहां वीरसेन स्वामीने किया हो। जिसप्रकार ऊपर कसायपाहुड पदमें दो प्रकारसे समास किया है उसीप्रकार पेजदोसपाहुड पदमें भी दो प्रकारसे समास कर लेना चाहिये । ६३००. यतिवृषभ आचार्यने सुगम समझकर अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली जिन गाथाओंका व्याख्यान नहीं किया है अब उन गाथाओंके अर्थका प्ररूपण करते हैं। शंका-सबसे पहले अद्धापरिमाणका निर्देश किसलिये किया है ? समाधान-क्योंकि इन कालोंके न जानने पर समस्त अर्थाधिकारोंके विषयका ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये अद्धापरिमाणका कथन सबसे पहले किया है। (१)-सितादप-अ०, आ० ।-सिमद्धप-ता० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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