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जयधेवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पेज्जदोसविहत्ती १ णाणस्स गहणं । कुदो ? कज्जे कारणोवयारादो । उवरि ईहावायणाणणिद्देसादो एत्थोग्गहणाणस्स गहणं कायव्वं । किमोग्गहणाणं णाम ? विसंयविसयिसंपायसमणंतरमुप्पण्णणाण
हो । धारणा गहणं किण्ण होदि ? ण; विसयविसयिसंपायसमणंतरं तदुप्पत्तीए अणुवलंभादो । ण च अंतरियउप्पण्णं णाणमिंदियजणियं होइ; अव्ववत्थावत्तदो । धारणाए अवायंत भावेण पुध परूवणाभावादो वा ण तिस्से गहणं । कालंतरे संभरणणिमित्त संसकारहेउणाणं धारणा, तव्विवरीयं णिण्णयणाणमवाओ त्ति अत्थि तेसिं भेदो, तेण ण धारणा अवाए पविसदि त्ति उत्ते; होउ तेण भेदो ण णिण्णयभावेण दोसु वि तदुवलंइन्द्रियसे उत्पन्न हुए ज्ञानका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय कारण है और उससे उत्पन्न हुआ ज्ञान कार्य है, इसलिये कार्य में कारणका उपचार कर लेनेसे चक्षु इन्द्रियसे चक्षु इन्द्रियद्वारा उत्पन्न हुए ज्ञानका ग्रहण करना चाहिये । तथा आगे ईहाज्ञान और अवायज्ञानका उल्लेख किया है, इसलिये यहां ईहा और अवाय ज्ञानका ग्रहण न करके अवग्रह ज्ञानका ग्रहण करना चाहिये ।
शंका- अवग्रहज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - विषय और विषयीके संपात अर्थात् योग्य देशमें स्थित होनेके अनन्तर उत्पन्न हुए ज्ञानको अवग्रह ज्ञान कहते हैं ।
शंका- यहां चक्षुइन्द्रिय आदि पदोंसे धारणा ज्ञानका ग्रहण क्यों नहीं होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि विषय और विषयीके संपातके अनंतर ही धारणा ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं पाई जाती है अर्थात् धारणा ज्ञान उसके बाद कुछ अन्तरालसे होता है । और अन्तरालसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह इन्द्रियजनित नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्थाकी आपत्ति प्राप्त होती है । अथवा, धारणाज्ञानका अवायज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाने के कारण उसका यहां पृथक् कथन नहीं किया है, इसलिये भी यहां उसका ग्रहण नहीं होता है ।
शंका- जो संस्कार कालान्तर में स्मरणका निमित्त है उसके कारणरूप ज्ञानको धारणा कहते हैं और इससे विपरीत केवल निर्णयस्वरूप ज्ञानको अवाय कहते हैं, इसलिये इन दोनों ज्ञानों में भेद है । अतः अवाय में धारणाका अन्तर्भाव नहीं हो सकता है ?
समाधान-धारणा स्मरणके कारणभूत संस्कारका हेतु है और दूसरा ज्ञान ऐसा नहीं है इस रूपसे यदि दोनों में भेद है तो रहे, पर निर्णयरूपसे दोनों ज्ञानोंमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों ही ज्ञानोंमें निर्णय पाया जाता है, इसलिये अवायमें धारणाका अन्तर्भाव कर लेने में कोई दोष नहीं आता है ।
(१) "विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तरमाद्य ग्रहण मवग्रहः ।" - सर्वार्थ० १११५ । अकलंक० टि० प० १३४ । ( २ ) - भावा ण स० ।
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