Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 502
________________ श्रद्धापरिमाणणिसो ३५५ च्छति निरवयवस्यापरित्यक्त पूर्वकार्यस्यागमनविरोधात् । न समवायः सावयवः; अनित्यतापत्तेः । न सोऽनित्यः; अनवस्थाऽभावाभ्यां तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न नित्यः सर्वगतो वा; निष्क्रियस्य व्याप्ताशेषदेशस्यागमनविरोधात् । नासर्वगतः समवायबहुत्वप्रसङ्गात् । नान्येनानीयते; अनवस्थापत्तेः । न स्वत एति; 'सम्बन्धः समवायाऽगमनमपेक्षते, तदागमनमपि सम्बन्धम्' इतीतरेतराश्रयदोषानुषङ्गात् । न कार्योत्पत्तिप्रदेशे प्रागस्ति; सम्बन्धिभ्यां विना सम्बन्धस्य सत्त्वविरोधात् । न च तत्रोत्पद्यते; निरवयवस्योत्पत्तिविरोधात् । न समवायः समवायान्तरनिरपेक्ष उत्पद्यते; अन्यत्रापि तथा गा० २० j पदार्थको नहीं छोड़कर समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निरवयव है और जिसने पहले के कार्यको छोड़ा नहीं है ऐसे समवायका आगमन नहीं बन सकता है । समवायको सावयव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसे अनित्यपकी प्राप्ति होती है । यदि कहा जाय कि समवाय अनित्य होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवायवादियोंके मत में उत्पत्तिका अर्थ स्वकारणसत्तासमवाय माना है | अतः समवायकी भी उत्पत्ति दूसरे समवायकी अपेक्षासे होगी और ऐसा होने पर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । इस प्रसंगको वारण करनेके लिये समवायके स्वयं सम्बन्धरूप होने से यदि उसकी उत्पत्ति स्वतः अर्थात् समवायान्तरनिरपेक्ष मानी जायगी तो समवायका अभाव हो जानेसे उसकी उत्पत्ति बन नहीं सकती है । समवायको नित्य और सर्वगत कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो क्रियारहित है और जो समस्त देशमें व्याप्त है उसका आगमन माननेमें विरोध आता है । यदि असर्वगत कहा जाय सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवायको बहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । समवाय अन्यके द्वारा कार्यदेशमें लाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है अर्थात् प्रकृत समवायको दूसरी वस्तु कार्यदेशमें लायगी और दूसरी वस्तुको तीसरी वस्तु लायगी इत्यादिरूप अनवस्था आ जाती है। समवाय स्वतः आता है ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर 'सम्बन्धियों में संबन्धव्यवहार समवायके आगमनकी अपेक्षा करता है और समवायका आगमन भी सम्बन्धव्यवहारकी अपेक्षा करता है' इसप्रकार इतरेतराश्रयदोष प्राप्त होता है । कार्यके उत्पत्तिदेशमें समवाय पहलेसे रहता है, ऐसा भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि सम्बन्धियोंके बिना सम्बन्धका सत्व मानने में विरोध आता है । कार्यके उत्पत्तिदेशमें समवाय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय अवयवरहित है अर्थात् नित्य है इसलिये उसकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । समवाय दूसरे समवायकी बिना अपेक्षा किये उत्पन्न होता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर दूसरे पदार्थों की (१) -नानिय - अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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