Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 486
________________ गा० १५ ] परिमाणस ३३६ और केवल सामान्यको न तो जान ही सकते हैं और यदा कदाचित् उनको केवल विशेष और केवल सामान्यको जाननेवाला मान भी लिया जाय तो वे समीचीन नहीं ठहरते हैं, क्योंकि पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है, अतः इसप्रकार के पदार्थको जानने देखनेवाला ज्ञान और दर्शन ही समीचीन हो सकता है अन्य नहीं । इसप्रकार सामान्यविशेषात्मक पदार्थको ग्रहण करनेवाले ज्ञान और दर्शनके सिद्ध हो जाने पर उन दोनों में क्या भेद है यह विचारणीय हो जाता है । छद्मस्थोंके दर्शन ज्ञानके पहले होता है और उसमें 'यह घट है ट नहीं' इसप्रकार बाह्य पदार्थगत व्यतिरेक प्रत्यय नहीं होता । तथा 'यह भी घट है यह भी घट है' इसप्रकार बाह्य पदार्थगत अन्वय प्रत्यय भी नहीं होता, इसलिये वह बाह्य पदार्थको नहीं ग्रहण करता है यह तो निश्चित हो जाता है । पर बाह्य पदार्थको जाननेके पहले आत्माका उसको ग्रहण करनेके लिये प्रयत्न अवश्य होता है जो कि स्वप्रत्ययरूप पड़ता है । इस स्वप्रत्ययरूप प्रयत्नको ज्ञान तो कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ज्ञानकी धारा घट पट आदि विकल्पसे प्रारंभ होती है इससे पहले नहीं । इससे पहले होनेवाली आत्मअवस्थाको तो शास्त्रकारोंने दर्शन कहा है, अतः उस स्वप्रत्ययको दर्शन स्वीकार करना चाहिये । इसप्रकार अन्तरंग पदार्थको ग्रहण करनेवाले दर्शन और बाह्य पदार्थको ग्रहण करनेवाले ज्ञानके सिद्ध हो जाने पर ये दोनों विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर होते हैं या विषय-विषयीके सन्निपातके पहले दर्शन होता है और अनन्तर ज्ञान होता है इन विकल्पोंपर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । ज्ञान तो विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर ही होता है यह तो निर्विवाद है । पर दर्शनके विषय में दो मत पाये जाते हैं । जिन आचार्योंने दर्शनका अर्थ 'यह घट है यह पट है' इसप्रकार पदार्थका आकार न करके सामान्य ग्रहणरूप माना है उनके मतसे विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर दर्शन होता है पर जिन आचार्यों के मतसे दर्शनका अर्थ अन्तरंग पदार्थका अवलोकन है उनके मतसे विषय और विषयीके सन्निपातके पहले दर्शन होता है । इसमें से अमुक मत सभीचीन है और अमुक मत असमीचीन, यह तो कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि विवक्षाभेद से जिनागम में दोनों मत समीचीन माने गये हैं । बहुतसे दार्शनिक ज्ञानको पर प्रकाशक ही मानते हैं । उनके इस एकान्त मतका खण्डन करनेके लिये जैनाचार्योंने ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, यह व्यवस्था दी । इसप्रकार ज्ञानके स्वपरप्रकाशक निश्चित हो जाने पर अन्तरंग पदार्थको ग्रहण करनेवाला दर्शन है दर्शन के स्वरूपकी यह व्यवस्था नहीं रहती । किन्तु दर्शनका इससे भिन्न स्वरूप स्वीकार करना पड़ता है । दर्शनके इस भिन्न स्वरूपका निश्चय करते समय आत्मप्रयत्नके स्थान में इन्द्रियप्रयत्नको प्रमुखता मिली। और इन्द्रियोंका व्यापार आत्मामें होता नहीं, इसलिये ज्ञेय पदार्थको प्रमुखता मिली । पर ज्ञान 'यह घट है यह पट है' इस प्रकारके विकल्परूप होता है, अत एव 'दर्शन अनाकार होता है' इसको प्रमुखता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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