Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 499
________________ ३५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ विणढें ॥१३५॥” इदि सुत्तेण सह विरोहादो । अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदसणेण वि उप्पज्जेयव्, अक्कमेण अविकलकारणे संते तेसिं कमुप्पत्तिविरोहादो । एत्थुवउज्जती गाहा "केवलणाणावरणक्खएण जादं तु केवलं [जहा] णाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णिययावरणक्खए संते ॥१३६॥" तम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदंसणाणं कमउत्ती ति । ६३२१. होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अक्कमेण विणहावरणत्तादो, किंतु केवलणाणदंसणुवजोगा कमेण चेव होंति सामण्ण-विसेसविसयत्तेण अव्वत्त-वत्तसरूवाणमक्कमेण पउत्तिविरोहादो त्ति । एत्थ उवउजंत्ती गाहा "दंसगणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स होइ पुवयरं । होज समो उप्पाओ हंदि दुवे णत्थि उवजोगा ॥१३७॥" कर्म एकसाथ नाशको प्राप्त हुए ॥१३५॥” इस सूत्रके साथ विरोध आता है। यदि कहा जाय कि दोनों आवरणोंका एकसाथ नाश होता है तो केवलज्ञानके साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिये, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी उत्पत्तिके सभी अविकल कारणोंके एकसाथ मिल जाने पर उनकी क्रमसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। यहां उपयुक्त गाथा देते हैं "केवलज्ञानावरणके क्षय हो जाने पर जिसप्रकार केवलज्ञान उत्पन्न होता है उसीप्रकार केवलदर्शनावरण कर्मके क्षय हो जाने पर केवलदर्शनकी उत्पत्ति भी बन जाती है ॥१३६॥" चूंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन एकसाथ उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनकी प्रवृत्ति क्रमसे नहीं बन सकती है। ___३२१. शंका-केवलज्ञान और केवलदर्शनकी उत्पत्ति एकसाथ रही आओ, क्योंकि उनके आवरणोंका विनाश एक साथ होता है । किन्तु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रमसे ही होते हैं, क्योंकि केवलदर्शन सामान्यको विषय करनेवाला होनेसे अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेषको विषय करनेवाला होनेसे व्यक्तरूप है, इसलिये उनकी एकसाथ प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। यहां इस विषयमें उपयुक्त गाथा देते हैं ___"दर्शनावरण और ज्ञानावरणका क्षय एकसाथ होने पर पहले केवलदर्शन उत्पन्न होता है या केवलज्ञान ? ऐसा पूछे जाने पर अक्रमोपयोगवादी भले ही ऐसा मान ले कि (१) तुलना-"तदो णाणावरणदसणावरणअंतराइयाणमेगसमयेण संतोदयवोच्छेदो।" कषायपा० चू० गा० २३१३ (२) सन्मति० २।५। (३)-वलं णाणं आ० । (४) तहा दं-आ०, स० । (५) उत्ति त्ति अ०, आ०, ता०। (६) सन्मति० २।९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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