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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ पुव्वं चेव विसयीकयंतरंगो दंसणुवजोगो उप्पञ्जदि त्ति घेत्तव्यो, अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो।
१३०७. आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगोयरमुवणीयं, तेण आयारेण सह वट्टमाणं सायारं, तविवरीयमणायारं । 'विज्जुजोएण जं पुव्वदेसायारविसिठसत्तागहणं तं ण णाणं होदि तत्थ विसेसग्गहणाभावादो' त्ति भणिदेण; तं वि णाणं चेव, णाणादो पुधभूदकम्मुवलंभादो। ण च तत्थ एयंतेण विसेसग्गहणाभावो, दिसा-देस-संठाण-वण्णादिविसिसत्तुवलंभादो । अत एव विषय और विषयीके संपातके पहले ही अन्तरंगको विषय करनेवाला दर्शनोपयोग उत्पन्न होता है ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा दर्शनोपयोग अनाकार नहीं बन सकता है।
६३०७. सकल पदार्थोंके समुदायसे अलग होकर बुद्धिके विषयभावको प्राप्त हुआ कर्मकारक आकार कहलाता है । उस आकारके साथ जो उपयोग पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है और उससे विपरीत अनाकार उपयोग कहलाता है।
शंका-बिजलीके प्रकाशसे पूर्व दिशा, देश और आकारसे युक्त जो सत्ताका ग्रहण होता है वह ज्ञानोपयोग नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें विशेष पदार्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां पर ज्ञानसे पृथग्भूत कर्म पाया जाता है इसलिये वह भी ज्ञान ही है। यदि कहा जाय कि वहां विशेषका ग्रहण सर्वथा होता ही नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वहां पर दिशा, देश, आकार और वर्ण आदि विशेषोंसे युक्त सत्ताका ग्रहण पाया जाता है।
विशेषार्थ-यह तो सुनिश्चित है कि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप न तो पदार्थ ही हैं और न उनका स्वतन्त्ररूपसे ग्रहण ही होता है। नयज्ञान एक धर्मको ग्रहण करता है, इसका भी यही अभिप्राय है कि नय एक धर्मकी प्रधानतासे समस्त वस्तुको जानता है। अब यदि नयद्वारा पदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञाता पदार्थको उतना ही मानने लगे, अभिप्रायान्तरको साधार स्वीकार न करे तो उसका वह अभिप्राय मिथ्या कहा जावेगा। और यदि वह अभिप्रायान्तरोंको उतना ही साधार स्वीकार करे जितना कि वह विवक्षित अभिप्रायको स्वीकार करता है तो उसका वह अभिप्राय समीचीन माना जायगा। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि केवल एक धर्मका ग्रहण नहीं होता है। और जो एक धर्मके द्वारा पदार्थका प्रहण होता है वह नय है। अत एव प्रमाणज्ञान और दर्शन केवल विशेष
(१) "कम्मकत्तारभावो आगारो तेण आगारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागारो त्ति ।"-५० आ० प०८६५।
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