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गा०१५] श्रद्धापरिमाणणिदेसो
३३५ काय-पासे'-जिभिदियओग्गहणाणद्धादो मणजोगद्धा जहणिया विसेसाहिया । तत्तो जहणिया वचिजोगद्धा विसेसाहिया । तत्तो जहणिया कायजोगद्धा विसेसाहिया । विसेसपमाणं सव्वत्थ संखेजावलियाओ। तं कथं णव्वदे ? गुरूवदेसादो । मणवयण-कायजोगद्धाओ एगसमयमेत्ताओ वि अत्थि, ताओ एत्थ किण्ण गहिदाओ ? ण; णिव्वाघादे तासिमणुवलंभादो । 'णिव्वाधादद्धाओ चेव एत्थ गहिदाओ' ति कथं णव्वदे ? 'णिव्वाघादेणेदा हवंति' त्ति पुरदो भण्णमाणसुत्तावयवादो । पासिंदियजणिदोग्गहणाणमुवयारेण फासो । तम्हि जा जहणिया अद्धा सा विसेसाहिया। सब्वत्थविसेसपमाणं संखेजावलियाओ । णोइंदियओग्गहणाणजहण्णद्धाए अप्पाबहुअं किण्ण वचनयोगका जघन्यकाल विशेष अधिक है। वचनयोगके जघन्य कालसे काययोगका जघन्य काल विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण सर्वत्र संख्यात आवलियां लेना चाहिये । अर्थात् विशेषाधिकसे उत्तरोत्तर सर्वत्र कालका प्रमाण संख्यात आवली अधिक लेना चाहिये।
शंका-यह कैसे जाना जाता है कि विशेषका प्रमाण सर्वत्र संख्यात आवलियां लेना चाहिये ?
समाधान-गुरुओंके उपदेशसे जाना जाता है ।
शंका-मनोयोग, वचनयोग और काययोगका काल एक समयमात्र भी पाया जाता है, उसका यहाँ ग्रहण क्यों नहीं किया है ?
. समाधान-नहीं, क्योंकि व्याघातसे रहित अवस्थामें अर्थात् जब किसीप्रकारकी रुकावट नहीं होती तब मनोयोग, वचनयोग और काययोगका काल एक समयमात्र नहीं पाया जाता है।
शंका-यहाँ पर व्याघातसे रहित कालोंका ही ग्रहण किया है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-णिव्वाघादेणेदा हवंति' अर्थात् व्याघातसे रहित अवस्थाकी अपेक्षा ही ये सब काल होते हैं, इसप्रकार आगे कहे जानेवाले गाथासूत्रके अंशसे यह जाना जाता है कि यहां पर व्याघातसे रहित कालोंका ही ग्रहण किया है। अर्थात् यहां पर जो काल बतलाए हैं वे उस अवस्थाके हैं जब एक ज्ञान या योगके बीचमें किसी प्रकारकी रुकावट नहीं आती है। स्पर्शन इन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानको यहां पर उपचारसे स्पर्श कहा गया है। इस ज्ञानमें जो जघन्य काल पाया जाता है वह काययोगके जघन्य कालसे विशेष अधिक है। सर्वत्र विशेषका प्रमाण संख्यात आवलियां लेना चाहिये ।
__ शंका-मनसे उत्पन्न होनेवाले अवग्रहज्ञानके जघन्य कालका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा है ? अर्थात् कालोंके अल्पबहुत्वकी इस चर्चा में मनसे उत्पन्न होनेवाले अवग्रह
(१)-साओ म-अ०, आ० ।
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