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गा० १३-१४ ]
ति दीहो पयारो कायव्वो ।
"दीसंति दोणि वण्णा संजुत्ता अव तिण्णि चत्तारि । ताणं दुव्वललोवं काऊण कमो पओत्तव्व ॥ १३१ ॥” rate गाहाए सयारलोओ कायव्वो ।
" वग्गे वग्गे आई अवट्टिया दोण्णि दोण्णि जे वण्णा । ते णियय-णिययवग्गे तइअत्तणयं उवर्णमंति ॥१३२॥”
कसा पाहुडस्त निरुत्ती
rate गाहाए फेयास्स भयारो, टॅयारस्स डैयारो कायव्वो । “खै घ-ध-भ-सा उण हत्तं ॥१३३॥” एदीए गाहाए भयारस्स हयारे कये पाहुडं त्ति सिद्धं । कसायविसयं सुदणाणं कसाओ तस्स पाहुडं कसायपाहुडं | कसायविसयपदेहि पुंडं (फुडं) वत्तव्यमिदि वा कसायपाहुडं सुंदमिदि के वि पढति तेसिं पि ण दोसो; पदेहि भरिदमिदि णिद्देसादो | एवं
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इस नियम के अनुसार पकारको दीर्घ कर देना चाहिये । इसप्रकार पकारको दीर्घ करने पर पा+स्फुट रह जाता है । तब
"जिस पदमें दो, तीन या चार वर्ण संयुक्त दिखाई दें उसमेंसे दुर्बल वर्णका लोप करके शेषका प्रयोग क्रमसे करना चाहिये ॥ १३१ ॥ "
इस गाथा नियम के अनुसार स्फुटके सकारका लोप कर देना चाहिये । ऐसा करने पर पा+फुट रह जाता है । तब
"कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग इन प्रत्येक वर्गके आदिमें स्थित जो दो दो वर्ण अर्थात् क, ख, च, छ, ट ठ त थ, और प फ हैं वे अपने अपने वर्ग में अपने से तीसरे वर्णको क्रमसे प्राप्त होते हैं १३२ ॥ | "
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इस गाथा के नियमानुसार फुट शब्दमें के फकारको भकार और टकारको डकार कर देना चाहिये । ऐसा करने पर 'पाभुङ' हुआ । अनन्तर "ख, घ, ध, भ और स को ह हो जाता है ॥ १३३ ॥।” इस गाथाके नियमानुसार 'पाभुङ' के भकारको हकार कर देने पर 'पाहुड' शब्द बन जाता है । यहां कषायविषयक श्रुतज्ञानको कषाय कहा है और उसके पाहुडको कषायपाहुड कहा है । कसायपाहुड पदकी पूर्वोक्त व्युत्पत्तिके स्थान में ' कसायविसयपदेहि फुडं' यह व्युत्पत्ति कहनी चाहिये । तब जाकर कषायपाहुड शब्द वनता है जिसका अर्थ जो कषायविषयक पदोंसे भरा है वह कषायपाहुड श्रुत है ऐसा होता है । ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं पर उनका इसप्रकार व्याख्यान करना भी दोषरूप नहीं है, क्योंकि उनके अभिप्रायानुसार जो पदोंसे भरा हुआ है वह प्राभृत कहलाता है ऐसा निर्देश
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(१) - णमंते ० (२) पयार - अ०, आ०, स० । (३) उयार - अ०, आ०, स० । ( ४ ) दयारस० ता० । (५) “खघथघभाम् ।" - हेम० प्रा० व्या ८।१।१८७ । त्रिविक्रम० १।३।२० । (६) पुदं अ० आ० । पुदडं स० । (७) पुडं - ता० ।
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