Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 472
________________ गा० १३-१४ ] कसायपाहुडस्स णिरुक्ती ३२५ पडवणं दोगंधियपाहुडं। तत्थ दोगंधियपाहुडं दुविहं-परमाणंदपाहुडं, आणंदमेत्तिपाहुडं चेदि । तत्थ परमाणंददोगंधियपाहुडं जहा, जिणवइणा केवलणाणदसणति(वि)लोयणेहि पयासियासेसभुवणेण उज्झियरायदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहाइरियपणालेण पट्टविददुवालसंगवयणकलावो तदेगदेसो वा । अवरं आणंदमेत्तिपाहुडं । * अप्पसत्थं जहा कलहपाहुडं । ६२६६. कलहाणमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदव्वमुवयारेण कलहो, तस्स विसज्जणं कलहपाहुडं । एदेसु पाहुडेसु केण पाहुडेण पयदं ? दोगंधियपाहुडेण सग्गापवग्गाणंदकारणेण । * संपहि णिरुत्ती उच्चदे । $ २६७. प्रकृष्टेन तीर्थकरेण आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम् । प्रकृष्टैराचार्यैविद्यावित्तवद्भिराभृतं धारितं व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । अनेकार्थत्वाद्धातूनां निमित्तभूत द्रव्योंका भेजना दोप्रन्थिक पाहुड समझना चाहिये । परमानन्दपाहुड और आनन्दपाहुडके भेदसे दोग्रन्थिक पाहुड दो प्रकारका है। उनमेंसे केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप नेत्रोंसे जिसने समस्त लोकको देख लिया है, और जो राग और द्वेषसे रहित है ऐसे जिन भगवानके द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान आचार्योंकी परंपरासे भव्यजनोंके लिये भेजे गये बारह अंगोंके वचनोंका समुदाय अथवा उनका एकदेश परमानन्द दोप्रन्थिकपाहुड कहलाता है। इससे अतिरिक्त शेष जिनागम आनन्दमात्रपाहुड है। * अप्रशस्त नोआगमभावपाहुड, जैसे, कलहपाहुड । ६२१६. गधा, जीर्ण वस्तु और विष आदि द्रव्य कलह के निमित्त हैं इसलिये उपचारसे इन्हें भी कलह कहते हैं। इस कलहके निमित्तभूत्त द्रव्यका भेजना कलहपाहुड कहलाता है। शंका-इन प्रशस्त और अप्रशस्त पाहुडोंमेंसे प्रकृतमें किस पाहुडसे प्रयोजन है ? समाधान-स्वर्ग और मोक्षसम्बन्धी आनन्दके कारणरूप दोग्रन्थिकपाहुडसे प्रकृतमें प्रयोजन है। * अब पाहुड शब्दकी निरुक्ति कहते हैं । १२९७. जो प्रकृष्ट अर्थात् तीर्थंकरके द्वारा आभृत अर्थात् प्रस्थापित किया गया है वह प्राभृत है। अथवा, जिनके विद्या ही धन है ऐसे प्रकृष्ट आचार्योंके द्वारा जो धारण किया गया है अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परंपरारूपसे लाया गया है वह प्राभृत है । धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं इसलिये 'भृ' धातुका प्रस्थापित करना, धारण करना, व्याख्यान करना और लाना इतने अर्थों में होना विरोधको प्राप्त नहीं होता है। अथवा उपसर्गके निमित्तसे इस 'भृम्' धातुके अनेक अर्थ हो जाते हैं। यहां उपयोगी श्लोक देते हैं (१)-वयणा के-अ०, आ०। (२)-खेजयादि-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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