Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 470
________________ गां ० १३-१४ ] पाहुडे क्खेिवपरूवणा ३२३ सुगमा त सिमत्थमभणिय तव्वदिरित्तणोआगमदव्वणिक्खेव सरूव परूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि * णोआगमदो दव्वपाहुडं तिविहं, सचित्तं अचित्तं मिस्सयं च । ९ २६२. तत्थ सचित्तपाहुडं णाम जहा कोसल्लियभावेण पट्टविजमाणा हयगयविलयायिया । अचित्तपाहुडं जहा मणि-कणय- रयणाईणि उवायणाणि । मिस्सय पाहुडं जहा ससुवण्णकरितुरयाणं कोसल्लिय पेसणं । ९ २६३. आगमदो भाव पाहुडं सुगमं त्ति तमभणिय णोआगमभाव पाहुडसरूवपरूवणमुत्तरमुत्तं भणदि * णोआगमदो भावपाहुडं दुविहं, पसत्थमप्पसत्थं च । $ २६४. आणंद हेउदव्व पटवणं पसत्थभाव पाहुडं । वइरकलहादिहेउदन्वपद्यवणमप्पसत्थभाव पाहुडं । कथं दव्वस्स पसत्थापसत्थभावववएसो १ णः पसत्थाप सत्थभावनोआगम द्रव्यनिक्षेपके स्वरूपके कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेपकी अपेक्षा पाहुड तीन प्रकारका है सचित्त अचित्त और मिश्र । २२. इस तीन पाहुडोंमें से उपाहाररूपसे भेजे गये हाथी, घोड़ा और स्त्री आदि सचित पाहुड हैं । भेंटस्वरूप दिये गये मणि, सोना और रत्न आदि अचित्तपाहुड हैं । स्वर्ण के साथ हाथी और घोड़ेका उपहाररूपसे भेजना मिश्रपाहुड है । विशेषार्थ - तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेप कर्म और नोकर्मके भेदसे दो प्रकारका है । इनमें से कर्म तद्व्यतिरिक्तनो आगमद्रव्यनिक्षेपमें कर्मका और नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यनिक्षेपमें सहकारी कारणोंका ग्रहण किया जाता है । इस व्याख्या के अनुसार ऊपर जो तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेपके सचित्त, अचित्त और मिश्र इसप्रकार तीन भेद किये हैं वे वास्तव में नोकर्मतद्व्यतिरिक्तनो आगमद्रव्य निक्षेपके समझना चाहिये । $ २९३. आगमभावपाहुडका स्वरूप सुगम है इसलिये उसे न कहकर नोआगमभावपाहुडके स्वरूपके कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * प्रशस्तनोआगमभावपाहुड और अप्रशस्तनोआगमभावपाहुडके मेदसे नोआगम भाव पाहुड दो प्रकारका है । $ २६४. आनन्दके कारणभूत द्रव्यका उपहाररूपसे भेजना प्रशस्तनोआगमभावपाहुड है । तथा वैर और कलह आदिके कारणभूत द्रव्यका उपहाररूपसे भेजना अप्रशस्तनोआगमभाव पाहुड है । शंका- द्रव्यको प्रशस्त और अप्रशस्त ये संज्ञाएं कैसे प्राप्त हो सकती हैं ? समाधान - ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि द्रव्य प्रशस्त और अप्रशस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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