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________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * कम्हि कसाओ ? २८५. वत्थालंकारासु बज्झावलंबणेण विणा तदणुष्पत्तीदो । अहवा, जीवम्मि कसाओ । कथमभिण्णस्स अहियरणत्तं ? ण; 'सारे हिदो थंभो' त्ति अभिण्णे वि अहियरणत्वभादो । तिन्हं सहणयाणं कसाओ अप्पाणम्भि चैव हिदो, तत्तो पुधभूदस्स कसायहिदिकारणस्स अभावादो । * केवचिरं कसाओ ? [ पेज्जदोस विहत्ती १ है । नैगमादि चार नयोंकी अपेक्षा कषाय कर्तृसाधन है । अथवा कषायकी उत्पत्तिका कारण कर्मोंका उदय है इसलिये औदयिकभावसे कषाय होती है । पर शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि ये नय कार्यकारणभाव के बिना वर्तमान पर्याय मात्रको ग्रहण करते हैं । अथवा शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय पारिणामिक भावसे होती है। इसका यह तात्पर्य है कि कषायका कारण उदय नहीं है । कषाय में जो देशादिकके भेदसे भेद पाया जाता है वह शब्दादि नयोंका विषय नहीं है । * कषाय किसमें होती है ? ९२८५. वस्त्र और अलंकार आदि में कषाय उत्पन्न होती है, क्योंकि बाह्य अवलंबनके बिना कषायकी उत्पत्ति नहीं होती है । अथवा कषाय जीवमें होती है । शंका- जीव कषायसे अभिन्न है, इसलिये उसे अधिकरणपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि 'सारमें स्तंभ स्थित है' अर्थात् स्तंभका आधार उसका सार है । यहाँ सारसे स्तंभका अभेद रहते हुए भी अधिकरणपना पाया जाता है । अतः अभेदमें भी अधिकरणपना संभव है । तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा कषाय अपनेमें ही स्थित है, क्योंकि इन नयोंकी अपेक्षा कषायकी स्थितिका कारण अर्थात् आधार कषायसे भिन्न नहीं पाया जाता है | Jain Education International विशेषार्थ - 'कषाय किसमें होती है' इसके द्वारा अधिकरणका कथन किया है । अधिकरण बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे बाह्य अधिकरण में निमित्तका ग्रहण किया है । अतः वस्त्रालंकारादि में कषाय उत्पन्न होती है इसका यह अभिप्राय है कि वस्त्रालंकारादिके निमित्तसे कषाय उत्पन्न होती है । तथा आभ्यन्तर अधिकरणमें जीवका ग्रहण किया है । कषाय जीव द्रव्यकी अशुद्ध पर्याय है अतः उसका आधार जीव ही होगा । यद्यपि कषाय जीवसे अभिन्न पाई जाती है पर पर्याय- पर्यायीकी अपेक्षा कथंचित् भेद मानकर उन दोनोंमें आधार-आधेयभाव बन जाता है । यह सब कथन नैगमादि चार नयोंकी अपेक्षा समझना चाहिये । तीनों शब्दनय तो केवल वर्तमान पर्यायको ही स्वीकार करते हैं अतः उनकी अपेक्षा कषायका आधार उससे भिन्न नहीं हो सकता है । * कषाय कितने कालतक रहती है ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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