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गा० १३-१४] कसाए णिक्खेवपरूवणा
२६५ मुप्पञ्जमाणं सयमेव उप्पञ्जह; अणुप्पत्तिसहावस्सुप्पत्तिविरोहादो। एत्थ परिहारत्थमुत्तरसुत्तं भणदि
* मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कोहो।।
६२५६.ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहोण उप्पजह; अक्कोसादो जीवे कम्मकैलंककिए कोहुप्पत्तिदंसणादो । ण च उवलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कजं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो । ण च णिचं तिरोहिजइ अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवञ्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गदहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पजइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कञ्जमुप्पजह सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिव्यवहार देखा जाता है। अर्थात् कुम्हार घटकी उत्पति नहीं करता है किन्तु मिट्टीमें छिपे हुए घटको प्रकट कर देता है। इस आविर्भावको ही लोग उत्पत्तिके नामसे पुकारते हैं। अथवा, उत्पन्न होनेवाले जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वयं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि जिसका उत्पन्न होनेका स्वभाव नहीं है उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। इसप्रकार इस आक्षेपके निवारण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पतिककषाय की अपेक्षा क्रोध है।
२५६. 'किसी अन्यके निमित्तसे किसी अन्यमें क्रोध उत्पन्न नहीं होता है' यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मोंसे कलंकित हुए जीवमें कटु वचनके निमित्तसे क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पाई जाती है उसके विषयमें यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती है, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहनेमें विरोध आता है। 'कारणमें कार्य छिपा हुआ रहता है और वह प्रकट हो जाता है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मिटीके पिंडको विदारने पर घड़ेकी उपलब्धिका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कार्यको सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता है, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थमें किसी प्रकारका अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थका आवि
र्भाव भी नहीं बन सकता है, क्योंकि जो परिणमनसे रहित है उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। अन्य कारणोंसे गधेके सींगकी उत्पत्तिका प्रसंग देना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि उसका पहले से ही जिसप्रकार विशेषरूपसे अभाव है इसीप्रकार सामान्यरूपसे भी अभाव है इसप्रकार जब वह सामान्य, और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्तिका प्रश्न ही नहीं उठता। तथा कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना भी ठीक
(१)-कोहा ण अ०, आ०, स०। (२)-जीवो क-अ०, आ० । (३)-कलंकीए अ०, आ०, स० । (४)-सयाभा-अ०. आ० । "नित्यत्वादनाधेयातिशयस्य"-तत्वसं० पं० पृ०७४ । न्यायकम० पृ० १४३ टि०३।
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