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गा० १३-१४ ]
अणियोगद्दारेहि कसायपरूवण
२८०, सुगममेदं ।
* एत्थ छ अणियोगद्दाराणि ।
९२८१. किमहमेदाणि छ अणिओगद्दाराणि एत्थ उच्चति ? विसेसिऊण भावकसायसरूवपरूवणङ्कं । सेसकसायाणं छ अणियोगद्दाराणि किण्ण उत्ताणि ? ण; तेहि एत्थ अहियाभावाद । तं कुदो णव्वदे ? एदस्स विसेस परूवणादो ।
* किं कसाओ ?
६२८२. णेगम-संगह-ववहार - उजुसुद्दणयाणं कोहाइचउक्कवेयणओ जीवो कसाओ । कुदो ? जीववदिरित्तकसायाभावादो । तिन्हं सहणयाणं कोहाइचउकं दव्वकम्म- जीववदिरितं कसाओ; तेसिं विसए दव्वाभावादो ।
tear भी कथन करना चाहिये ।
$ २८०. यह सूत्र सुगम है ।
* यहाँ छह अनुयोगद्वारोंका कथन करना चाहिये ।
$ २८१. शंका- यहाँ पर छह अनुयोगद्वार किसलिये कहते हैं ?
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समाधान-भावकषायके स्वरूपका विशेषरूपसे प्ररूपण करनेके लिये यहाँ पर छह अनुयोगद्वार कहे जाते हैं ।
शंका- शेष नामादि कषायोंके छह अनुयोगद्वार क्यों नहीं कहे ? समाधान- नहीं, क्योंकि उन नामादि कषायों का यहाँ अधिकार नहीं है । शंका-उन नामादि कषायोंका यहाँ अधिकार नहीं है, यह कैसे जाना जाता है । समाधान- क्योंकि यहाँ पर भावकषायका ही विशेष प्ररूपण किया है इससे जाना जाता है कि शेष कषायोंका यहाँ अधिकार नहीं है ।
* कषाय क्या है ?
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$२८२. नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोधादि चार कषायोंका वेदन करनेवाला जीव कषाय है, क्योंकि जीवको छोड़कर कषाय अन्यत्र नहीं पाई जाती है । शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूतनयकी अपेक्षा क्रोधादिचतुष्क कषाय है, क्रोधादिरूप द्रव्यकर्म और जीव द्रव्य नहीं, क्योंकि इन तीनों शब्दनयोंके विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता है । (१) एवं छ आ० । (२) "कि केण कस्स कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो य । छहिं गिद्दा सव्वे भावाणुगंतव्वा ।" -मूलाचा० ८।१५० त० सू० १२६| " उद्देसे निद्देसे अ निग्गमे खेत्तका - लपुरिसे य । कारणपच्चयलक्खणनए समोआरणाणुमए ॥ किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवागरिस फासणनिरुत्ती ।।" - अनु० सू० १५१ । आ० नि० गा० १३७| "दुविहा परूवणा छप्पया य नवहा य छप्पया इणमो । किं कस्स केण व कहिं केवचिरं कइविहो य भवे ।" -आ० नि० गा० ८९१।
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