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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? $२५५. एदं पुच्छासुत्तं किमहं वुच्चदे ? पुच्छंतस्सेव अंतेवासिस्स भणउ णापुच्छंतस्स इत्ति जाणावणहं । अपुच्छंतस्स किण्ण उच्चदे ? वचिगुत्तिरक्खणणिमित्तं । अथवा अक्खेवो अण्णेण कओ।तं जहा, अण्णो जीवो अण्णम्मि जीवम्मि कोहकसायमुप्पायंतो कथं कोहो; कोहुप्पत्तिणिमित्तस्स कजादो पुधभूदस्स कजभावविरोहादो। ण च एक्कम्मि कजकारणभावो अत्थि; अणुवलंभादो। किं च, ण कज्जुप्पत्ती वि जुञ्जदे । तं जहा, णाणुप्पञ्जमाणमण्णेहिंतो उप्पजइ; सामण्णविसेससरूवेण असंतस्स गद्दहसिंगस्स वि अण्णेहितो उप्पत्तिपसंगादो। तदोण कस्स वि उप्पत्ती अस्थि । उप्पजमाणं कजमुवलंभइत्ति ण वोत्तुं जुत्तं; तिरोहियस्स दव्वस्स आविब्भावे उप्पत्तिववहारुवलंभादो । अथवा, सव्व
६२५५. शंका-यह पृच्छाविषयक सूत्र किसलिये कहा है ? ।
समाधान-जो शिष्य प्रश्न करे उसे ही कहे जो प्रश्न न करे उसे न कहे, इस बातका ज्ञान करानेके लिये पृच्छासूत्र कहा है।
शंका-जो शिष्य प्रश्न न करे उसे क्यों न कहे ? समाधान-वचनगुप्तिकी रक्षा करनेके लिये नहीं पूछनेवाले को न कहे ।
विशेषार्थ-साधुओंके सत्यमहाव्रतके होते हुए भी वे निरन्तर गुप्तिकी रक्षा करने में उद्युक्त रहते हैं। जब केवल गुप्तिसे व्यवहार नहीं चलता है तभी वे भाषासमितिका आश्रय लेते हैं तथा दीक्षितों और इतर सज्जन पुरुषोंको सन्मार्गमें लगानेके लिये सत्यधर्मका भी। इससे निश्चित हो जाता है कि साधु पुरुष प्रश्न नहीं करनेवाले शिष्यको कभी उपदेश नहीं देते हैं। इसी अभिप्रायसे ऊपर पूछनेवालेको ही कहे यह कहा है।
अथवा, 'कधं ताव जीवो' इस सूत्रके द्वारा किसी अन्यने आक्षेप किया है। उसका खुलासा इसप्रकार है-दूसरा जीव किसी दूसरे जीवमें क्रोधकषायको उत्पन्न करता हुआ क्रोधरूप कैसे हो सकता है, अर्थात् जो जीव किसी दूसरे जीवमें क्रोध उत्पन्न करता है वह जीव स्वयं क्रोधरूप कैसे है ? क्योंकि क्रोधकी उत्पत्तिमें निमित्त जीव क्रोधरूप कार्यसे भिन्न है, इसलिये उसे क्रोधरूप माननेमें विरोध आता है। तथा एक वस्तुमें कार्यकारण भाव बन भी नहीं सकता है, क्योंकि जो कारण हो वही कार्य भी हो ऐसा पाया नहीं जाता है। दूसरे कार्यकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है। इसका खुलासा इसप्रकार हैजो स्वयं उत्पद्यमान नहीं है वह अन्यके निमित्तसे भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, यदि अनुत्पद्यमान पदार्थ भी अन्यसे उत्पन्न होने लगे तो सामान्य और विशेषरूपसे सर्वथा असत् गधेके सींगकी भी अन्यके निमित्तसे उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होगा। इसलिये किसी भी पदार्थकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि कहा जाय कि कार्यकी उत्पत्ति देखी जाती है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तिरोहित पदार्थके प्रकट होने में उत्पत्ति शब्दका
(१) मणेण भ०, आ० ।
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