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जयवलासहिदे कसा पाहुडे
* माणो द्धो लिक्खदे |
s २६५. देव- रिसि-पिउ-माउ- सामि सालाणं पणाममगच्छंतो थद्धो णाम । तस्स रूवं चित्तम्मे लिहिदं संतं तं पि आदेसकसाओ ।
[ पेज्जदोसविहत्ती १
* मायाँ णिगृहमाणो लिक्खदे ।
९ २६६. णिग्रहमाणो णाम वंचेंतो छलेंतो त्ति भणिदं होदि ।
* लोहो णिव्वाइँदेण पंपागहिदो लिक्खदे |
कषाय है । इसका भी वही पूर्वोक्त तात्पर्य है, क्योंकि स्थापनाकषायकी तो दोनों जगह एक ही परिभाषा कही है। किंतु आदेशकषायकी परिभाषामें थोड़ा अन्तर दिखाई देता है । पहले केवल कषायविषयक सद्भावस्थापनाको आदेशकषाय कह आये हैं और यहाँ पर उसके अतिरिक्त 'यह कषाय है' इसप्रकार की प्ररूपणा और इसप्रकार की बुद्धिको आदेशकषाय कहा है । पर विचार करने पर यह प्रकार भी सद्भावस्थापनाके भीतर आ जाता है, इसलिये प्रथम कथन सामान्यरूपसे और दूसरा कथन उसके विशेष खुलासारूप से समझना चाहिये, क्योंकि अधिकतर 'यह कषाय है' इसप्रकारकी प्ररूपणा और बुद्धि सद्भावस्थापनाके द्वारा ही हो सकती है । विशेषावश्यकभाष्यकारने 'कषायरूप सद्भावस्थापना आदेशकषाय है' इस मतका खंडन करके कषायका स्वांग लेनेवाले व्यक्तिको आदेशकषाय बतलाया है । पर व्यापक दृष्टिसे विचार किया जाय तो कषायका स्वांग लेनेवाला व्यक्ति भी तो सद्भावस्थापनाका एक भेद है अन्तर केवल सजीव और अजीवका ही है । कषायकी तदाकार नकल दोनों जगह की गई है। चित्रमें लिखा गया जीव भी कषायरूप पर्यायसे परिणत नहीं है और कषायका स्वांग करनेवाला पुरुष भी कषायरूप पर्यायसे परिणत नहीं है, अतः सद्भाव स्थापना में दोनोंका अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये सद्भावस्थापनाको आदेशकषायरूपसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं प्रतीत होती है ।
* चित्रमें लिखित स्तब्ध अर्थात् गर्विष्ठ या अकड़ा हुआ पुरुष या स्त्री आदेशकषायकी अपेक्षा मान है
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§ २६५. देव, ऋषि, पिता, माता, स्वामी और सालेको नमस्कार नहीं करनेवाला पुरुष स्तब्ध कहलाता है । उसकी जो आकृति चित्रकर्म में अंकितकी जाती है वह आदेश - कषायकी अपेक्षा मान है ।
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* निगूह्यमान अर्थात् दूसरेको ठगते हुए या छलते हुए पुरुष या स्त्रीकी जो आकृति चित्रकर्म में लिखी जाती है वह आदेशकषायकी अपेक्षा माया है ।
$ २६६. यहां निगूह्यमानका अर्थ वंचना करनेवाला या छलनेवाला है । * लालसाके कारण लम्पटतासे युक्त पुरुष या स्त्रीकी जो आकृति चित्रमें अंकित (१) सद्दो अ० आ० । ( २ ) - कम्मे हि लि-आ० । ( ३ ) - या ग-आ०, अ०, स० । ( ४ ) - इतेण स० ।
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