Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 456
________________ गा० १३-१४] कसाए णिक्खेवपरूवणा घडावेई । 'सिया अवत्तव्वं' कसायणोकसायविसयअत्थपज्जायसरूवेण, एत्थतण-सियासद्दो कसायणोकसायविसयेवंजणपज्जाए ढोएइ । 'सिया कसाओ च णोकसाओ च' एत्थतण-सियासद्दो कसाय-णोकसायविसयअत्थपज्जाए दव्वेण सह ढोएइ । 'सिया कसाओ च अवत्तव्वओ च' एत्थतणसियासद्दो णोकसायत्तं घडावेइ । 'सिया णोकसाओ च अवतव्वओ च' एत्थतणसियासदो कसायत्तं घडावेइ । 'सिया कसाओ च णोकसाओ च अवत्तव्वओ च' एत्थतणसियासदो कसायणोकसाय-अवत्तव्वधम्माणं तिण्हं पि कमेण भण्णमाणाणं दव्वम्मि अक्कमउत्तिं सूचेदि । "कथञ्चित् केनचित् कश्चित् कुतश्चित् कस्यचित् कचित् । कदाचिच्चेति पर्यायात स्याद्वादः सप्तभङ्गभृत् ॥१२७॥" इत्युक्तत्वात् स्याद्वादो (दः) क्रमेण वर्तते चेत्, न; उपलक्षणार्थमेतस्योक्तेः । घटित करता है । (३) कषाय और नोकपायविषयक अर्थपर्यायरूपसे द्रव्य स्यात् अवक्तव्य है । इस भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषायविषयक व्यंजनपर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है। (४) द्रव्य स्यात् कषायरूप और अकषायरूप है । इस चौथे भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषायविषयक अर्थपयायोंको द्रव्यमें घटित करता है। (५) द्रव्य स्यात् कषायरूप और अवक्तव्य है । इस पांचवे भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द द्रव्यमें नोकषायपनेको घटित करता है। (६) द्रव्य स्यात् अकषायरूप और अवक्तव्य है। इस छठे भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द द्रव्यमें कषायपनेको घटित करता है। (७) द्रव्य स्यात् कषायरूप, . अकषायरूप और अवक्तव्य है। इस सातवें भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द क्रमसे कहे जानेवाले कषाय, नोकषाय और अवक्तव्यरूप तीनों धर्मोंकी द्रव्यमें अक्रमवृत्तिको सूचित करता है। __ शंका-"कोई एक पदार्थ है । वह किसी एक स्वरूपसे है। उसकी उत्पत्ति आदिका कोई एक साधन भी है । उसका कोई एक अपादान भी है। वह किसी एकका सम्बन्धी भी है। वह किसी एक अधिकरणमें भी है तथा वह किसी एक कालमें भी है। इन पर्यायोंसे स्याद्वाद सात भंगवाला होता है ॥१२७॥" इस कथनसे तो मालूम होता है कि स्याद्वाद क्रमसे रहता है । समाधान-नहीं, क्योंकि यह कथन उपलक्षणके लिये किया गया है। विशेषार्थ-'रसकसाओ णाम दव्वं दव्वाणि वा कसाओ' इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने वचनप्रयोग करते समय स्यात् पदकी आवश्यकता-अनावश्यकता, सप्तभंगी और स्याद्वादके क्रमवर्तित्व-अक्रमवर्तित्व पर प्रकाश डाला है । वचनप्रयोगमें स्यात् पदके प्रयोगकी आवश्यकता-अनावश्यकता पर विचार करते हुए वीरसेन स्वामीके लिखनेका यह अभिप्राय है कि प्रत्येक वचनप्रयोगमें स्यात् पदकी योजना करनी ही चाहिये ऐसा (१)-इ सिया णोकसाओ च सियां आ० । (२)-य अत्यवंजण-आ० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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