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गा० १३-१४]
कसाए णिम्खेवपरूवणा
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६२४५. दव्वकम्मस्स उदएण जीवो कोहो त्ति जं भणिदं एत्थ चोअओ भणदि, दव्वकम्माइं जीवसंबंधाइं संताई किमिदि सगकर्ज कसायसरूवं सव्वद्धं ण कुणंति ? अलद्धविसिष्ठभावत्तादो । तदलंभे कारणं वत्तव्यं ? पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवा (भावा) वेक्खाए जायदे । तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माइं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं ।
___$२४६. एसो पञ्चयकसाओ समुप्पत्तियकसायादो अभिण्णो त्ति पुध ण वत्तव्यो ? ण; जीवादो अभिण्णो होदूण जो कसाए समुप्पादेदि सो पच्चओ णाम । भिण्णो होदूण जो समुप्पादेदि सो समुप्पत्तिओ त्ति दोण्हं भेदुवलंभादो।
* एवं माणवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माणो होदि तम्हा तं कम्मं पच्चयकसाएण माणो।
३२४५. द्रव्यकर्म के उदयसे जीव क्रोधरूप होता है ऐसा जो कथन किया है उसपर शंकाकार कहता है
शंका-जब द्रव्यकर्मोंका जीवके साथ संबन्ध पाया जाता है तो वे कषायरूप अपने कार्यको सर्वदा क्यों नहीं उत्पन्न करते हैं ?
समाधान-सभी अवस्थाओंमें फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त न होनेके कारण द्रव्यकर्म सर्वदा अपने कषायरूप कार्यको नहीं करते हैं ।
शंका-द्रव्यकर्म फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको सर्वदा प्राप्त नहीं होते इसमें क्या कारण है। उसका कथन करना चाहिये ?
समाधान-जिस कारणसे द्रव्यकर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते हैं वह कारण प्रागभाव है। प्रागभावका विनाश हुए बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभावका विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा लेकर होता है, इसलिये द्रव्यकर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं यह सिद्ध होता है।
६२४६.शंका-यह प्रत्ययकषाय समुत्पत्तिककषायसे अभिन्न है अर्थात् ये दोनों कषाय एक हैं इसलिये इसका पृथक् कथन नहीं करना चाहिये ।
समाधान-नहीं, क्योंकि जो जीवसे अभिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह प्रत्ययकषाय है और जो जीवसे भिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह समुत्पत्तिककषाय है अर्थात् क्रोधकर्म प्रत्ययकषाय है और उसके सहकारी कारण समुत्पत्तिककषाय हैं। इसप्रकार इन दोनों में भेद पाया जाता है, इसलिये प्रत्ययकषायका समुत्पत्तिककषायसे भिन्न कथन किया है।
* इसीप्रकार मानवेदनीय कर्मके उदयसे जीव मानरूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा वह कर्म भी मान कहलाता है ।
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