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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे .. [पेज्जदोसविहत्ती १ * मायावेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो माया होदि तम्हा तं कम्मं पञ्चयकसाएण माया ।
* लोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो लोहो होदि तम्हा तं कम्मं पच्चयकसाएण लोहो।
$ २४७. एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । * एवं णेगम-संगह-ववहाराणं । $ २४८. कुदो ? कज्जादो अभिण्णस्स कारणस्स पच्चयभावब्भुवगमादो । * उजुसुदस्स कोहोदयं पड्डुच्च जीवो कोहकसाओ ।
$२४६.जं पडुच्च कोहकसाओ तं पच्चयकसाएण कसाओ । बंधसंताणं जीवादो अभिण्णाणं वेयणसहावाणमुजुसुदो कोहादिपञ्चयभावं किण्ण इच्छदे ? ण; बंधसंतेहिंतो
* मायावेदनीय कर्मके उदयसे जीव मायारूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा वह कर्म भी माया कहलाता है।
* लोभवेदनीय कर्मके उदयसे जीव लोभरूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा वह कर्म भी लोभ कहलाता है।
६२४७. ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं ।
इसप्रकार ऊपर चार सूत्रों द्वारा जो क्रोधादिरूप द्रव्यकर्मको प्रत्ययकषाय कह आये हैं वह नैगम, संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षासे जानना चाहिये।
६२४८. शंका-यह कैसे जाना कि उक्त कथन नैगमादिककी अपेक्षासे किया है ? . समाधान-चूँकि ऊपर कार्यसे अभिन्न कारणको प्रत्ययरूपसे स्वीकार किया है, अर्थात् जो कारण कार्यसे अभिन्न है उसे ही कषायका प्रत्यय बतलाया है, इसलिये यह कथन नैगम, संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षासे ही बनता है।
विशेषार्थ-कारणकार्यभावके रहते हुए भी कारणसे कार्यको अभिन्न स्वीकार करनेवाले नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन ही नय हैं, ऋजुसूत्र नहीं; क्योंकि ऋजुसूत्रनय कार्यकारणभावको स्वीकार ही नहीं करता है। अतः नैगमादि तीन नयोंकी मुख्यतासे प्रत्ययकषायकी अपेक्षा क्रोधादि वेदनीय कर्मको प्रत्ययकषाय कहना संगत ही है।
* ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिमें क्रोधके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोधकषायरूप होता है।
६२४१. जिसकी अपेक्षा करके जीव क्रोधकषायरूप होता है ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिमें वही प्रत्ययकषायकी अपेक्षा कषाय है । अतः क्रोध कर्मके उदयकी अपेक्षासे जीव क्रोधकषायरूप होता है इसलिये ऋजुसूत्रनयकी दृष्टि में क्रोध कर्मका उदय प्रत्ययकषाय है।
शंका-बन्ध और सत्त्व भी जीवसे अभिन्न हैं और वेदनस्वभाव हैं, इसलिये ऋजु(१)-च्च तं आ० ।
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