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गा० १३-१४ ]
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कोहादिकसायाणमुपीए अभावादो । ण च कजमकुणंताणं कारणववएसो; अब्ववत्थावत्तदो ।
$२५०. बंधसंतोदय सरूवमेगं चैव दव्वं । तं जहा, कम्मइयवग्गणादो आवूरियसव्वलोगादो मिच्छत्तासंजम - कसाय - जोगवसेण लोगमेत्तजीवपदेसेसु अकमेण आगंतूण सबंधक मक्खंधा अनंताणंत परमाणुसमुदयसमागमुप्पण्णा कम्मपजाएण परिणयपढमसमए बंधववएसं पडिवति । ते चैव विदियसमयप्पहुडि जाव फलदाणहेडिम - समओ ति ताव संतववएसं पडिवअंति । ते च्चेय फलदाणसमए उदयववएसं पडिव - जति । ण च णामभेदेण दव्वभेओ; इंद-सक-पुरंदरणामेहि देवरायस्स वि भेदप्पसूत्रनय क्रोधादि कर्मोंके बन्ध और सत्त्वको भी क्रोधादि प्रत्ययरूपसे क्यों नहीं स्वीकार करता है ? अर्थात् क्रोध कर्मके उदयको ही ऋजुसूत्र प्रत्ययकषाय क्यों मानता है, उसके बन्ध और सत्व अवस्थाको प्रत्ययकषाय क्यों नहीं मानता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि क्रोधादि कर्मोंके बन्ध और सवसे क्रोधादिकषायों की उत्पत्ति नहीं होती है । तथा जो कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं उन्हें कारण कहना ठीक भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्था दोषकी प्राप्ति होती है, इसलिये ऋजुसूत्रनय बन्ध और सत्वको प्रत्ययरूप से स्वीकार नहीं करता है ।
९२५०. शंका- एक ही कर्मद्रव्य बन्ध, सत्त्व और उदयरूप होता है। इसका खुलासा इसप्रकार है -- समस्त लोकमें व्याप्त कार्मण वर्गणाओंमेंसे अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुए कर्मस्कन्ध आकर मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके निमित्तसे एकसाथ लोकप्रमाण जीवके प्रदेशों में संबद्ध होकर कर्म पर्यायरूपसे परिणत होनेके प्रथम समय में बन्ध इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं । जीवसे संबद्ध हुए वे ही कर्मस्कन्ध दूसरे समय से लेकर फल देनेसे पहले समय तक सत्त्व इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं । तथा जीवसे संबद्ध हुए वे ही कर्मस्कन्ध फल देने के समय में उदय इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं । अर्थात् जिस समयमें कर्मस्कन्ध आत्मासे सम्बद्ध होकर कर्मरूप परिणत होते हैं उस समय में उनकी बन्ध संज्ञा होती है । उसके दूसरे समयसे लेकर उदयको प्राप्त होनेके पहले समय तक उनकी सत्त्व संज्ञा होती है और जब वे फल देते हैं तो उनकी उदयसंज्ञा होती है । अतः एक ही कर्मद्रव्य बन्ध सत्त्व और उदयरूप होता है। यदि कहा जाय कि द्रव्य एक ही है फिर भी बन्ध आदि नामभेदसे द्रव्य में भेद हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि नामभेदसे द्रव्य में भेद के मानने पर इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन नामोंके कारण एक देवराजमें भी भेदका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । अर्थात् इन्द्र आदि नाम भेद होने पर भी जैसे देवराज एक है उसीप्रकार बंध आदि नाम भेदके होने पर भी कर्मस्कन्ध एक है, इसलिये ऋजुसूत्रनय जिसप्रकार कर्मोंके उदयको प्रत्ययकषायकी अपेक्षा कषायरूपसे स्वीकार करता
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