Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 435
________________ २८८ __ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेजदोसविहत्ती १ भावावत्तिविरोहादो; णः पज्जएहितो पुधभूदजीवदव्वाणुवलंभादो । उवलंभे वा ण तं दव्वं; णिच्चभावेण किरियावजियस्स गुणसंकंतिविरहियस्स दव्यत्तविरोहादो । तम्हा दव्वपजायाणं णइगमणयावलंबणेण अण्णोण्णाणुगमो जेण होदि तेण 'जीवो कोहो होदि' त्ति घडदे। ___६२४४. दव्वकम्मस्स कोहणिमित्तस्स कथं कोहभावो?ण; कारणे कज्जुवयारेण तस्स कोहभावसिद्धीदो। जीवादो कोहकसाओ अव्वदिरित्तो; जीवसहावखंतिविणासणदुवारेण समुप्पत्तीदो। कोहसरूवजीवादो वि दव्वकम्माइं अपुधभूदाई, अण्णहा अमुत्तसहावस्स जीवस्स मुत्तेण सरीरेण सह संबंधविरोहादो। मुत्तामुत्ताणं कम्मजीवाणं कथं संबंधो ? ण; अणादिबंधणबंधत्तादो । तदो दव्वकम्मकसायाणमेयत्तुवलंभादो वा दव्वकम्मं कसाओ। समाधान-नहीं, क्योंकि जीवद्रव्य अपनी क्रोधादिरूप पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न नहीं पाया जाता है। यदि पाया जाय तो वह द्रव्य नहीं हो सकता है, क्योंकि जो कूटस्थ नित्य होनेके कारण क्रियारहित है अतएव जिसमें गुणोंका परिणमन नहीं पाया जाता है उसको द्रव्य माननेमें विरोध आता है। इसलिये यतः द्रव्य और पर्यायोंका नैगमनयकी अपेक्षा परस्परमें अनुगम होता है अर्थात द्रव्य पर्यायका अनुसरण करता है और पर्याय द्रव्यका अनुसरण करती है। अतः जीव क्रोधरूप होता है यह कथन भी बन जाता है । ६२४४. शंका-द्रव्यकर्म क्रोधका निमित्त है, अत: वह क्रोधरूप कैसे हो सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि कारणरूप द्रव्यकर्ममें कार्यरूप क्रोधभावका उपचार कर लेनेसे द्रव्यकर्ममें भी क्रोधभावकी सिद्धि हो जाती है। अर्थात् द्रव्यकर्मको भी क्रोध कह सकते हैं। जीवसे क्रोधकषाय कथंचित् अभिन्न है, क्योंकि जीवके स्वभावरूप क्षमा धर्मका विनाश करके क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है । अर्थात् क्षमा जीवका स्वभाव है और उसका विनाश करके क्रोध उत्पन्न होता है, अत: वह भी जीवसे अभिन्न है । तथा क्रोधस्वरूप जीवसे द्रव्यकर्म भी एकक्षेत्रावगाही होनेके कारण अभिन्न है। क्योंकि ऐसा न मानने पर अमूर्त जीवका मूर्त शरीरके साथ सम्बन्ध माननेमें विरोध आता है। शंका-कर्म मूर्त हैं और जीव अमूर्त, अतः इन दोनोंका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जीव अनादि कालसे कर्म बन्धनसे बंधा हुआ है, इसलिये कथंचित् मूर्तपनेको प्राप्त हुए जीवके साथ मूर्त कर्मोंका सम्बन्ध बन जाता है। अतः जब क्रोधकषाय जीवसे कथंचित् अभिन्न है और उससे द्रव्य कर्म कथंचित् अभिन्न है तो द्रव्य कर्म और कषायोंका कथंचित् अभेद पाया जानेसे द्रव्यकर्म भी कषाय है. ऐसा समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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