Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गो० १३-१४ ] पेज्जे णिक्खेवपरूवणा
२७५ हाईणं जहासंभवेण पेजभावो वत्तव्यो। परमाणुम्मि कथं पेजत्तं ? ण, विवेदमाणाणं हरिसुप्पायणेण तत्थ वि पेजभावुवलंभादो । एदेसु णएसु संजोगभंगा किनिदि ण संभवंति ? वुच्चदे, ण ताव संगहणए संजोगभंगा अत्थि, एकम्मि संजोगाभावादो। ण पादेक्कभंगा वि अत्थि, एगप्पणाए हिद-पिय-सुहसरूवेण भेदाभावादो।
२२३. उजुसुदे वि संजोगभंगा णत्थि; पुधभूददव्याणं संजोगाभावादो । ण सरिसत्तं पि अस्थि; हिद-पिय-सुहभावेण भिण्णाणं सरिसत्तविरोहादो। ण च एगेण पेजसद्देण वाचियत्तादो एयचं; सद्दभेदाभेदेहि वत्थुस्स भेदाभेदाणमभावादो । ण पादेकभंगा अस्थि, हिद-सुह-पियभावेण अवहिददव्वाभावादो।
wwwwww शंका-परमाणुमें पेज्जभाव कैसे बन सकता है ?
समाधान-यह शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणुको विशेषरूपसे जाननेवाले पुरुषों के परमाणु हर्षका उत्पादक है। अर्थात् परमाणुके जाननेके इच्छुक मनुष्य जब उसे जान लेते हैं तो उन्हें बड़ा हर्ष होता है, इसलिये परमाणुमें भी पेज्जभाव पाया जाता है।
विशेषार्थ-संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय एक कालमें एक वस्तुको दोरूपसे ग्रहण नहीं कर सकते हैं, अतः इनकी अपेक्षा समस्त द्रव्य एक कालमें या तो पेज्जरूप ही होंगे या द्वेषरूप ही। यहां पेज्ज भावका प्रकरण है, अतः यहां इन तीनों नयोंकी अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप ही कहे हैं। इसीप्रकार द्वेषभावके प्रकरणमें इन तीनों नयोंकी अपेक्षा समस्त द्रव्य द्वेषरूप ही कहे जायंगे। इन तीनों नयों में संयोगी भंग क्यों नहीं बनते हैं इसका स्पष्टीकरण आगे ग्रंथकारने स्वयं किया है।
शंका-इन संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयोंमें संयोगी भंग क्यों संभव नहीं हैं ?
समाधान-संग्रहनयमें तो संयोगी भंग संभव नहीं हैं, क्योंकि, वह सबको एक रूपसे ही ग्रहण करता है, और एक में संयोग हो नहीं सकता है। उसीप्रकार संग्रहनयमें प्रत्येक भंग भी संभव नहीं हैं, क्योंकि संग्रहनयमें एकत्वकी विवक्षा है इसलिये उसकी अपेक्षा एक वस्तुके हित, प्रिय और सुखरूपसे भेद नहीं हो सकते हैं।
६२२३. ऋजुसूत्रनयमें भी संयोगी भंग नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि इस नयकी दृष्टिसे पृथक्भूत द्रव्योंमें संयोग नहीं हो सकता है। तथा इस नयकी अपेक्षा द्रव्योंमें सदृशता भी नहीं पाई जाती है जिससे उनमें एकत्व माना जावे, क्योंकि जो पदार्थ हित, सुख और प्रियरूपसे भिन्न भिन्न हैं उनमें सदृशताके मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि हित, प्रिय और सुखरूप द्रव्य एक पेज्ज शब्दके वाच्य हैं इसलिये उनमें एकत्व पाया जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दोंके भेदसे वस्तुमें भेद और शब्दोंके अभेदसे वस्तुमें अभेद नहीं होता है। उसीप्रकार ऋजुसूत्रनयमें प्रत्येक भंग भी नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि एक द्रव्य हित, सुख और प्रियरूपसे सर्वदा अवस्थित नहीं पाया जाता है।
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