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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पेजदोसविहती ! वर्णादर्थप्रतिपत्तिः प्रतिवर्णमर्थप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । अस्तु चेत् । न अनुपलम्भात् । नित्यानित्योभयपक्षेषु सङ्केतग्रहणानुपपत्तेश्च न पदवाक्येभ्योऽर्थप्रतिपत्तिः। नासंकेतितः शब्दोऽर्थप्रतिपादकः, अनुपलम्भात् । ततो न शब्दादि(ब्दादर्थ)प्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ।
६२१६. न च वर्ण-पद-वाक्यव्यतिरिक्तः नित्योऽक्रमः अमूर्तो निरवयवः सर्वगतः अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति; अनुपलम्भात् । न मतिस्तद्ग्राहिका; अवग्रहेहावायधारणारूढस्य स्फोटस्य सर्वगतनित्यनिरवयवाक्रमामूर्तस्यानुपलम्भात् । नानुमानदाय नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि वर्गों का समुदाय हो जाओ, सो भी बात नहीं है, क्योंकि वों में सहभाव नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि वोंसे अर्थका ज्ञान हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वर्णोंसे अर्थका ज्ञान मानने पर प्रत्येक वर्णसे अर्थके ज्ञानका प्रसंग आता है । यदि कहा जाय कि प्रत्येक वर्णसे अर्थका ज्ञान हो जाओ सो भी बात नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वर्णसे अर्थका ज्ञान होता हुआ नहीं देखा जाता है । तथा सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य और सर्वथा उभयपक्षमें संकेतका ग्रहण नहीं बनता है, इसलिये पद और वाक्योंसे अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। और जिस शब्दमें संकेत नहीं किया गया है वह पदार्थका प्रतिपादक हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा देखा नहीं जाता है। इसलिये शब्दसे अर्थका ज्ञान नहीं होता है यह सिद्ध हो जाता है।
२१६. यदि कहा जाय कि वर्ण, पद और वाक्यसे भिन्न, नित्य, क्रमरहित, अमूर्त, निरवयव, सर्वगत स्फोट पदार्थोंकी प्रतिपत्तिका कारण है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इसप्रकारका स्फोट पाया नहीं जाता है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-मतिज्ञानसे तो स्फोटका ग्रहण होता नहीं है, क्योंकि सर्वगत, नित्य निरवयव, अक्रमवर्ती और अमूर्तस्वरूप स्फोट अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानका विषय नहीं देखा जाता है।
(१) तुलना-"वर्णानां प्रत्येक वाचकत्वे द्वितीयादिवर्णोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात् । आनर्थक्ये तु प्रत्येकमुत्पत्तिपक्षे योगपद्येनोत्पत्त्यभावात् । अभिव्यक्तिपक्षे तु क्रमेणवाभिव्यक्त्या समुदायाभावात् एकस्मृत्युपारूढानां वाचकत्वे सरो रस इत्यादौ अर्थप्रतिपत्त्यविशेषप्रसङ्गात् तद्वयतिरिक्तः स्फोटो नादाभिव्यङग्यो वाचकः ।"-पात० महाभा० प्र० पृ० १६॥ (२) नासंकति तच्छब्दार्थ-स० । नासंकति ततः शब्दोऽर्थम०, आ०,। (३)-तं सो स्फोटोत्यनुपल-स० ।-तं चोत्पत्त्यनुपल-अ०, आ०। “वर्णातिरिक्तो वर्णाभिव्यङग्योऽर्थप्रत्यायको नित्यः शब्दः स्फोट इति तद्विदो वदन्ति । अत एव स्फटयते व्यज्यते वणैरिति स्फोटो वर्णाभिव्यङग्यः, स्फुटति स्फुटीभवत्यस्मादर्थ इति स्फोटोऽर्थप्रत्यायक इति स्फोटशब्दार्थमुभयथा निराहुः ।" -सर्वद० पू० ३००। "वाक्यस्फोटोऽतिनिष्कर्षे तिष्ठतीति मतस्थितिः । यद्यपि वर्णस्फोट: पदस्फोट: वाक्यस्फोट: अखण्डपदवाक्यस्फोटौ वर्णपदवाक्यभेदेन त्रयो जातिस्फोटा इत्यष्टौ पक्षाः सिद्धान्तसिद्धा इति . . . . . ."-वैयाकरणभू० पृ० २९४ । परमलघु० पृ० २। न्यायकुमु० पृ० ७४५ टि० ९ । (४) तुलना"घटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तकालप्रत्यासत्तिविशिष्टवर्णव्यतिरेकेण स्फोटात्मनोऽर्थप्रकाशकस्य अध्यक्षगोचरचारितयाऽप्रतीतेः।"-न्यायकुमु० पृ० ७५५ । सन्मति० टी० पृ० ४३५ ।
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