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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेजदोसविहत्ती १ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नो चेत् (नोभे) तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥११२॥
मनुष्य केवल सोना चाहता है वह घटके विनाश और मुकुटकी उत्पत्तिके समय भी सोनेका सद्भाव रहनेसे मध्यस्थभावको प्राप्त रहता है। इसलिये इन विषादादिकको सहेतुक ही मानना चाहिये ॥१११॥"
विशेषार्थ-घट और मुकुट ये दोनों स्वतन्त्र दो पर्यायें हैं एक कालमें इनका एक साथ सद्भाव नहीं पाया जा सकता है। अब यदि सोनेके घटको तुड़वाकर कोई मुकुट बनवा ले तो घटके इच्छुक पुरुषको विषाद और मुकुट चाहनेवालेको हर्ष होगा और स्वर्णा
र्थीको सुख और दुःख कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि सोना घट और मुकुट दोनों ही अवस्थाओंमें समान भावसे पाया जाता है। चूंकि ये सुख दुःख और मध्यस्थभाव निर्हेतुक तो कहे नहीं जा सकते हैं अतः निश्चित होता है कि पदार्थ न सर्वथा क्षणिक है न सर्वथा नित्य है किन्तु नित्यानित्यात्मक है ॥१११॥
"जिसके केवल दूध पीनेका व्रत अर्थात् नियम है वह दही नहीं खाता है, जिसके केवल दही खानेका नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसके गोरस नहीं खानेका व्रत है वह दूध और दही दोनोंको नहीं खाता है । इससे प्रतीत होता है कि पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है ॥११२॥"
विशेषार्थ-दूध और दही ये दोनों गोरसकी क्रमसे होनेवाली पर्यायें हैं और गोरस इन दोनोंमें व्याप्त होकर रहता है । गोरसकी जब दूध अवस्था होती है तब दहीरूप अवस्था नहीं पाई जाती है और जब दहीरूप अवस्था होती है तब दूधरूप अवस्था नहीं पाई जाती है, क्योंकि दूध पर्यायका व्यय होकर ही दही पर्याय उत्पन्न होती है। किन्तु गोरस दूधरूप भी है और दहीरूप भी है। यही सबब है कि जिसने केवल दूध पीनेका व्रत लिया है वह दहीका सेवन नहीं कर सकता और जिसने केवल दहीके सेवन करनेका व्रत लिया है वह दूध नहीं पी सकता, क्योंकि इन दोनोंमें भेद है। पर गोरसके सेवन नहीं करनेका जिसके बत है वह दूध और दही दोनोंका ही उपयोग नहीं कर सकता, क्योंकि दूध और दही दोनों गोरस हैं । इसप्रकार एक गोरस पदार्थ अपनी दूधरूप अवस्थाका त्याग करके दहीरूप अवस्थाको प्राप्त होता है फिर भी वह गोरस बना ही रहता है। इससे यह निश्चित हो जाता है कि पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं ॥११२॥
(१) तुलना-"वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमाथिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं . ."-मी० श्लो० पृ० ६१९ । न्यायकुमु० टि० पृ० ४०१ । (२) "नोभे तस्मात्तत्त्वं.." -आप्तमी० श्लो० ६०॥
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