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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? ततो वस्तुना जात्यन्तरेण भवितव्यम् ।
"पजवणयवोकंतं वत्थू (त्थु) दव्वट्ठियस वयणिजं ।
जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो ॥१०७॥ होनेसे प्रमाण भी अभावरूप ही ठहरता है। इसप्रकार प्रमाणके अभावरूप हो जानेसे उसके द्वारा वे अभावैकान्तका साधन कैसे कर सकते हैं और अपने विरोधियोंके मतमें दूषण भी कैसे दे सकते हैं, क्योंकि स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण ज्ञानात्मक स्वार्थानुमान और वचनात्मक परार्थानुमानके बिना नहीं हो सकता है। अतः भावका सर्वथा अपलाप करके केवल अभावका मानना भी ठीक नहीं है ॥१०६॥
इसलिये पदार्थ न तो सर्वथा भावरूप ही है और न सर्वथा अभावरूप ही है किन्तु वह जात्यन्तररूप अर्थात् भावाभावात्मक ही होना चाहिये ।।
"जिसके पश्चात् विकल्पज्ञान और वचनव्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्य ज्ञान जहां तक होता है वहां तक वह वस्तु द्रव्यार्थिक नयका विषय है । तथा वह पर्यायार्थिक नयसे आक्रान्त है । अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिक नयके द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गई है वह द्रव्यार्थिकनयका विषय है, क्योंकि जिसके पश्चात् विकल्पज्ञान और वचनव्यवहार नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोगकी प्रवृत्ति होती है ॥१०७॥"
विशेषार्थ-इस गाथामें यह बताया गया है कि जितना भी द्रव्यार्थिकनयका विषय है वह सब पर्यायाक्रान्त होनेसे पर्यायार्थिकनयका भी विषय है। और जितना भी पर्यायार्थिकनयका विषय है वह सब सामान्यानुस्यूत होनेसे द्रव्यार्थिकनयका भी विषय है। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष होनेके कारण ही समीचीन हैं। सन्मतिसूत्रमें इस गाथाके पहले आई हुई 'पज्जवणिस्सामण्णं' इत्यादि गाथाके समुदायार्थका उद्घाटन करते हुए अभयदेव सूरि लिखते हैं कि 'विशेषके संस्पर्शसे रहित 'अस्ति' यह वचन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा प्रवृत्त होता है और सत्तास्वभाक्को स्पर्श नहीं करते हुए द्रव्य, पृथिवी इत्यादि वचन पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा प्रवृत्त होते हैं। परन्तु ये दोनों प्रकारके वचन एक दूसरेकी अपेक्षाके बिना असमीचीन हैं, क्योंकि इन वचनोंका वाच्य सत्तासामान्य और विशेष सर्वथा स्वतन्त्र नहीं पाया जाता है। इसलिये इन्हें परस्पर सापेक्ष अवस्थामें ही समीचीन मानना चाहिये।' इससे भी यही निश्चित होता है कि द्रव्यार्थिकका विषय पर्यायाक्रान्त है और पर्यायार्थिकका विषय द्रव्याक्रान्त है। यहां यद्यपि यह कहा जा सकता है कि महासत्ताके ऊपर और कोई अपर सामान्य नहीं है जिस अपरसामान्यकी अपेक्षा वह विशेषरूप सिद्ध होवे । तथा अन्तिम विशेषके नीचे उसका भेदक और कोई विशेष नहीं है जिसकी अपेक्षा
(१)-स्स सब्भावं जाव अ०, आ० । (२) -प्प णिप्पण्णो अ०, आ० । "पज्जवणयवोक्कतं वत्थं दव्वट्रियस्स वयणिज्जं । जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो ॥"-सन्मति० ८।।
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