________________
२५०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती? "भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥१०३॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निह्नवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०४॥ ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु यदि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष हों तो समीचीनपनेको प्राप्त होते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं ॥१०२॥"
___ "पदार्थ सर्वथा सत्स्वरूप ही हैं इसप्रकारके निश्चयको भावैकान्त कहते हैं। उसके मानने पर अर्थात् पदार्थोंको सर्वथा सत् स्वीकार करने पर प्रागभाव आदि चारों अभावोंका अपलाप करना होगा अर्थात् उनके होते हुए भी उनकी सत्ताको अस्वीकार करना पड़ेगा।
और ऐसा होनेसे हे जिन, आपके स्थाद्वाद मतसे भिन्न सांख्य आदिके द्वारा माने गये पदार्थ इतरेतराभावके बिना सर्वात्मक, प्रागभावके बिना अनादि, प्रध्वंसाभावके बिना अनन्त और अत्यन्ताभावके बिना निःस्वरूप हो जाते हैं ॥१०३॥”
विशेषार्थ-पदार्य न केवल भावात्मक ही हैं और न केवल अभावात्मक ही हैं। किन्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा भावात्मक और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल
और परभावकी अपेक्षा अभावात्मक होनेसे भावाभावात्मक हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो प्रतिनियत पदार्थकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। जैसे घट घट ही है घट पट नहीं है, यह व्यवस्था तभी बन सकती है जब घटका स्वचतुष्टयकी अपेक्षा सद्भाव और पटादिकी अपेक्षा अभाव स्वीकार किया जाय । यदि घटमें स्वचतुष्टयके समान परचतुष्टयसे भी सत्त्व स्वीकार कर लिया जाय तो घट केवल घट नहीं रह सकता उसे पटरूप होनेका भी प्रसंग प्राप्त होता है। अतः घट भावरूप भी है और अभावरूप भी है यह निष्कर्ष निकलता है। किन्तु जो इतर एकान्तवादी मत ऐसा नहीं मानते हैं और वस्तुको केवल भावरूप ही स्वीकार करते हैं, वे पदार्थोंमें विद्यमान अभाव धर्मका अपलाप करते हैं जिसके कारण उनकी तत्त्वव्यवस्थामें चार महान् दूषण आते हैं जो कि संक्षेपमें ऊपर बतलाये हैं। तथा आगे भी उन्हीं दूषणोंको स्पष्ट करके बतलाते हैं ॥१०३॥
"कार्यके स्वरूप लाभ करनेके पहले उसका जो अभाव रहता है वह प्रागभाव है। दूसरे शब्दोंमें जिसका अभाव नियमसे कार्यरूप पड़ता है वह प्रागभाव है । उसका अपलाप करने पर कार्यद्रव्य घट पटादि अनादि हो जाते हैं। तथा कार्यका स्वरूप लाभके पश्चात् जो अभाव होता है वह प्रध्वंसाभाव है। दूसरे शब्दोंमें जो कार्यके विघटनरूप है वह प्रध्वंसाभाव है। उसके अपलाप करने पर घट पटादि कार्य अनन्त अर्थात अन्तरहित अविनाशी हो जाते हैं ॥१०४॥"
(१) आप्तमी० श्लो० ९ । (२) आप्तमी० श्लो? १० ।
Vvvvvvvvv
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org