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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पेज्जदोसविहत्ती ?
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"उप्पजति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । दव्वढियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविणहूँ ॥१५॥ [दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जया णत्थि । उप्पायट्ठिदिभंगा हंदि दवि-] यलक्खणं ऐयं ॥१६॥ ऎदं (एदे) पुण संगहदो पादेक्कमलक्खणं दुवण्हं पि ।
तम्हा मिच्छाइट्ठी पादेकं वे वि मूलणया ॥१७॥" २०५. नात्र संसार-सुख-दुःख-बन्ध-मोक्षाश्च संभवन्ति; नित्यानित्यैकान्तयोस्तद्विरोधात् । उक्तञ्चवस्तुमें नहीं रह सकते हैं। तथा सर्वथा अनुभयरूप भी वस्तु सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि वस्तुको सर्वथा अनुभयरूप मानने पर अर्थात् उसको नित्य अनित्य और उभय इन तीनोंरूप न मानने पर निःस्वभावताकी आपत्ति प्राप्त होती है अर्थात् वस्तु निःस्वभाव हो जाती है । कहा भी है
"पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं। तथा द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा वे सदा अविनष्ट और अनुत्पन्नस्वभाववाले हैं । अर्थात् द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा पदार्थोंका न तो कभी उत्पाद होता है और न कभी नाश होता है वे सदा ध्रुव रहते हैं ॥१५॥"
"द्रव्य पर्यायके बिना नहीं होता और पर्यायें द्रव्यके बिना नहीं होती। क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों द्रव्यके लक्षण हैं ॥१६॥"
"ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों मिल कर ही द्रव्यके लक्षण होते हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका जो जुदा जुदा विषय है वह द्रव्यका लक्षण नहीं है अर्थात् केवल उत्पाद और व्यय तथा केवल ध्रौव्य द्रव्यका लक्षण नहीं है, इसलिये अलग अलग दोनों मूलनय मिथ्यादृष्टि हैं ॥१७॥"
६२०५. सर्वथा द्रव्यार्थिकनय या सर्वथा पर्यायार्थिकनयके मानने पर संसार, सुख, दुख, बन्ध और मोक्ष कुछ भी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि सर्वथा नित्यैकान्त और सर्वथा अनित्यैकान्तकी अपेक्षा संसारादिकके माननेमें विरोध आता है। कहा भी है
(१) सन्मति० ११११ । णट्ठ (त्रु० ३४ या णत्थि . . . . . . ) यलक्ख-ता० स०।-गढ़ उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण णिच्छयणयस्स । यमविणदव्वं दव्वट्टियलक्ख-अ० । -ण, उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । णेयमविणट्ठदव्वं दध्वट्ठियलक्ख-आ०। (२) "दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायट्टिदिभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥"-सन्मति० १११२। (३) "एए पुण.."-सन्मति० १११३ । (४) तुलना-"कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तनहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥"-आप्तमी० श्लो०८।
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